गुरुवार, अगस्त 24

मैं साहित्यकार हूँ ॰॰॰

मै कमजोर हूँ ताकत नहीं है मुझमे, खडे होने की इस नपुंसक समाज के समक्ष अपाहिज हो गया हूँ मैं तभी तो रपटकर चलता हूँ कागज पर कलम का सहारा लेकर खडा होता हूँ अपनी ताकत खो चुका हूँ या फिर कलम की ताकत जान चुका हूँ कल बाजार मे मैने देखा बिक रही थी बहन की चुडियां माँ का मंगलसुत्र बच्चो का भविष्य और बीवी की अस्मत भी मगर मै कुछ नहीं बोला; खामोश रहा मेरे लहु मे उबाल नहीं आया बस चंद कागज के टुकडे और कलम खरीदकर चुपचाप लौट आया और अब लिखने बैठा हूँ जो कुछ देखा था सोचता हूँ जब ये पंक्तियां जन-जन तक पँहूचेगी मै मजबुत हो जाऊँगा अभी मै दुबककर बैठा हूँ बहार जो हो रहा है ठीक वही मै अन्दर कर रहा हूँ इस कागज पर और जब-जब भी मौका मिलेगा बाहर जाने का इसी तरह लिखता रहुँगा मगर लड़ नहीं सकता क्योंकि मैं कमजोर हूँ मैं साहित्यकार हूँ ॰॰॰

रविवार, अगस्त 13

छुआछुत ॰॰॰

बहा दी थी उसने सारी गंदगी गंदे नाले में जहां से बहकर पंहुच गई वो गंगा मे आज उसी के छु जाने से हो गया मैं अपवित्र तो किया गया मुझे पुनः पवित्र चंद छिंटे मेरे बदन पर डालकर उसी गंगाजल के ॰॰॰

मेरा भारत महान है ...

दिल दरिया, आँख समन्दर है होठ प्यासे पंहुच से दूर है ... ठोकर पे जहाँ, हाथ में कृपाण हसीं अदाऎ, गरदन पे तलवार है ... रात अंधेरी, घनी जुल्फों का साया अंधा नौजवान, उजाले की तलास है ... खुबसुरत गाल, मनमोहनी मुस्कान पागल दीवाने, मरने को बेकरार है ... मटकती कमरिया, मदहोश चाल गांधी का देश, गौधो का तबेला है ... मुँह मे पाउच, आसमान मे छल्ला सिगरेट;तम्बाकु, जैब मे जहान है ... ठेके की दुकान, हर एक विद्वान चिल्लाके कहता, दुश्मन पाकिस्तान है ... नारी, मदिरा, सिगरेट, तम्बाकु भारतिय नर, बहुत बुरा हाल है ... गन्ने कि दुकान, बातो में मिठास चिपका जोंक, नमक की दरकार है ... पुरूष-नशा, नारी-दुर्दशा, बच्चे-पैमाने बिकती लड़कियाँ, मेरा भारत महान है ...

बुधवार, अगस्त 9

सिंदूर ... एक ढोंग

तेरी जूल्फों के घने साये को चिरती हुई; सुरंग सी बनाती हुई निकलती है लालीमा ॰॰॰ हाँ वही जिसे तुम प्यार से सहलाती हो रोजाना सुबह ॰॰ दोपहर ॰॰ शाम और रात को भी मैं वहीं पर बैठा हूँ दिल करता है कुदकर खो जाऊँ तेरी इन जुल्फों में मगर फिर सोचता हूँ जब तुम आईने में देखकर प्यार से सिंदूर सजाओगी तो शायद तुम्हारे हाथो का हल्का सा स्पर्श मेरे जीवन का मुल्य लौटा दे ॰॰॰ मगर अफसोस सिर्फ इतना रहेगा कि इसे माथे पर सजाते वक्त तुम्हारे होंठो पर मेरा नाम नहीं होगा क्योंकि संस्कृति॰॰संस्कार॰॰धर्म का वास्ता देकर बंद कर दिये तुमने अपने दिल के दरवाजे और मेरा नाम तेरे दिल की दिवारों से टकरा-टकराकर दम तोड़ रहा होता है जब किसी 'गैर' के नाम को लम्बी उम्र देने के लिये तेरे द्वारा यह ढोंग रचाया जा रहा होता है ॰॰॰॰॰

दिल के चंद सवाल ...

कल उसने मुझसे पुछा कि मेरा कर्म क्या है ...? मेरी जीत क्या है ...? मेरी हार क्या है ...? क्यूं बिछा रखी है चारो तरफ़ ये रक्षक पंक्तियां अपनी धरा से इतना प्यार क्यूं है ...? दूलार क्यूं है ...? यह गीता क्यूं है ...? कुरान क्यूं है ...? धर्म के नाम पर संग्राम क्यूं है ...? हां कल उसने पूछा वह सुमन कहां है ...? यहां सहरा क्यूं है ...? बारिश के इंतजार मे माली उदास क्यूं है ...? कल तक हुआ करता था जो तेरे पास खुशीयों का वो गुर कहां है ...? प्रित कहां है ...? वो मनमीत कहां है ...? कल उसने मुझसे पुछा जो करता था कल तक रोशन सबको वो दीपक कहां है ...? वो ज्योती कहां है ...? वो सूर्य कहां है ...? वो प्रकाश कहां है ...? सारी दूनियां मे अपने पराक्रम के झंडे गाड़ने वाला वो अशोक कहां है ...? चंद छिंटे डालकर भष्म कर देने वाला वो योगी कहां है ...? वो जोगी कहां है ...? हां कल उसने मुझसे पुछा कि जिसकी भिन्नी-भिन्नी गंध पाकर खिलते थे सुमन वो माटी कहां है ...? वो पवन कहां है ...? तु इतना चुपचाप क्यूं है ...? मेरे सवालो से परेशान क्यूं है ...? क्या छुपा रखा है इन सब को तुमने ही कहीं या फ़िर तु भी बेबस है लाचार है उसके सवालो के नुकिले तीर बार-बार मेरी आत्मा को छलनी कर रहे थे मगर मैं क्या कर सकता था मेरे पास नहीं था उसके किसी भी सवाल का जवाब इसी कारण मै मौन था ...

सोमवार, अगस्त 7

अस्तीत्व...

एक हरा भरा पत्ता जो कभी ओंस की बूंदो के संग नहाता था टहनी से चिपका ठण्डी हवाओं के संग अठखेलियां किया करता था तेज धूप को अपने आंचल मे समेटकर राहगीर को ठण्डी छांव देता था तो कभी बूंदे गिरा-गिराकर उन्हें परेशान किया करता था ये सारे उसके जीवन के बसंती क्षण थे जिन्हे वो हंस-हंसकर जिया करता था कल क्या होगा...? कल कहां हो़गा...? इन प्रश्नों से बेखबर रहा करता था मगर जिस डाली के सहारे वो इतना इतराया करता था एक दिन उसी ने नाता तोड लिया भरी दुनियां मे 'अकेला' छोड दिया पत्ता बेचारा कुछ समझ ना पाया क्या हुआ...? कैसे हुआ...? इन सवालों मे उलझ गया पड़ा रहा वहीं; उसी पौधे के पैरों में बेसहारा समझकर खुद को सहारे को तरसता रहा मगर कुछ दिनो बाद जब आंसू भी सूख गये; खुद भी सूख गया एक हवा का झोंका आया और वो भी संग बह गया कुछ दिनों तक भटकता रहा यूं ही इधर-उधर बेरूखी हवा के संग बहता रहा फ़िर एक दिन उसने सोचा उसका अपना अस्तीत्व क्या है...? उसका अपना वजूद क्या है...? और उसने निश्चय कर लिया अब नहीं भटकेगा इधर-उधर और डटकर खड़ा हो गया अंगद की तरह आज वो पेड़ बन चूका है उसकी डालियों पर कुछ हरे-भरे पत्ते उसी तरह अठखेलियां करते है जैसे वो किया करता था मगर अब वो कर रहा है ... इंतज़ार उस क्षण का जब वो भेजेगा अपने ज़िगर के टुकड़ो को अपने से दूर अस्तीत्व की तलास में क्योंकि अब वो जान चूका है ... अपने पैरों पर खड़े होने का मतलब क्या है . . .

शनिवार, अगस्त 5

मै इंतजार करूंगा. . .

मै इंतजार करूंगा तुम्हारे आने तक नहीं यह समय की बरबादी नहीं दरअसल मुझे और कोई काम ही नहीं इसके सिवा और मै जानता हूं तुम आओगे यहीं मेरे घर पर अभी तुम व्यस्त हो मगर जब तुम्हारे सारे कार्य निपट जायेगे तुम्हारे पास वक्त होगा अपने लिये तुम चाहोगे जी लेना उसी मे अपनी पुरी जिन्दगी तब तुम्हे मस्ती सुझेगी तुम्हारा बचपन लौट आयेगा और तब याद आयेगी तुम्हे अपने बचपन के साथी की तब तुम आओगे मुझसे मिलने मेरे पास और उस समय अगर मै व्यस्त हुआ तो तुम उदास हो जाओगे तुम्हारे अन्दर की सारी ऊर्जा निष्क्रिय हो जायेगी तुम्हारी सारी उमंग सारी मस्ती काफ़ूर हो जायेगी और मै तुम्हे ऐसे नहीं देख पाऊंगा इसी कारण मै इंतजार करुंगा तुम्हारे आने तक . . .

विरोधाभास...

(१)
कविताऎं लिखना कौन चाहता है...
कलम को घिसाना कौन चाहता है...
महफ़िल में मुस्कुराना पड्‍ता है यहां...
वरना कागज़ को भिगोना कौन चाहता है...
हर पल को रखा हमने डायरी मे संजोके...
वरना "कविराज" कहलाना कौन चाहता है...
(२)
कविताऎं लिखना कौन नहीं चाहता...
कलम को घिसाना कौन नही चाहता...
खुशी के पल है यहां सिर्फ़ चार
उन्हे संजोके रखना कौन नहीं चाहता...
हर दिल मे होती है उमंगो की कुश्ती
फ़िर "कविराज" कहलाना कौन नहीं चाहता...

गज़ल

यादों के पन्नो को पलटने से क्या होगा

नज़रों में ख्वाबो को संजोने से क्या होगा

अब आवाज देकर बैचेन ना कर उसे

आ ना सके जो बुलाने से क्या होगा

भूल पाना वस मे नहीं जानता है जब

दिल से तस्वीर यों मिटाने से क्या होगा

प्यास बुझेगी उसकी जब लहू से तेरे

तन्हाई को आंसू ये पिलाने से क्या होगा

कागज़ पर उकेर कर नाम यों 'कविराज'

बार-बार याद उसे करने से क्या होगा

यादों के पन्नो को पलटने से क्या होगा

नज़रों में ख्वाबो को संजोने से क्या होगा

मां का प्यार

प्यार मुझे उस वक्त भी था जब मै जानता था सिर्फ़ हंसना या रोना जब नहीं था मुझे शब्दो का ज्ञान मैं समझता था सिर्फ़ ममता की भाषा हां वो प्यार ही था चिपका रहता था जिसके कारण हर समय मैं मां की छाती से मगर ज्यों-ज्यों मुझे शब्दों का ज्ञान हुआ प्यार की भाषा बदलने लगी स्वार्थ की भाषा में अब मुझे तभी आती थी मां की याद जब मेरे थके-हारे बदन को जरूरत होती थी मां के आंचल की जहां लेटकर सारी की सारी थकान काफ़ूर हो जाती थी मगर शब्दों का ज्ञान ज्यों-ज्यों बढता गया त्यों-त्यों मां का आंचल भी मुझे प्यार से सहलाने को तरसता रहा मुझको आभास न था कि यह प्यार है मैं तो समझता था कि फ़र्ज है मां का मेरे लिये और मेरा मां के लिये प्यार तो वह है जो 'भंवरा' 'सुमन' से करता है 'चकोर' 'चांद' से करता है और इसी प्यार की खातीर त्याग दिया मैने मां को प्यार के लिये प्यार को यह भी नहीं सोचा 'सुमन' सिर्फ़ तब तक खिलेगा जब तक बसंत है 'चांद' सिर्फ़ तब तक दिखेगा जब तक निशा है मगर मां का प्यार हमेशा रहेगा मेरे/उसके होने या ना होने के बाद भी....

शत-शत नमन!

मृत्यु द्वार तक पंहूच चूके अपने आप मे असहाय आंतरिक आंधि के हिलोरो से टकराकर चकनाचूर हो रहे मेरे विचारो को आपने अपने अन्दर समेटकर मुझे एंव मेरे विचारो को जीवनदान दिया है अत: हे लेखनी और घास-फूस के पूर्नउत्थान से बने उसके हमसफ़र कागज़ आप दोनो को "कविराज" का शत-शत नमन !

मेरा परिचय

  • नाम : गिरिराज जोशी
  • ठिकाना : नागौर, राजस्थान, India
  • एक खण्डहर जो अब साहित्यिक ईंटो से पूर्ननिर्मित हो रहा है...
मेरी प्रोफाईल

पूर्व संकलन

'कवि अकेला' समुह

'हिन्दी-कविता' समुह

धन्यवाद

यह चिट्ठा गिरिराज जोशी "कविराज" द्वारा तैयार किया गया है। ब्लोगर डोट कोम का धन्यवाद जिसकी सहायता से यह संभव हो पाया।
प्रसिद्धी सूचकांक :