मां का प्यार
प्यार मुझे उस वक्त भी था जब मै जानता था सिर्फ़ हंसना या रोना जब नहीं था मुझे शब्दो का ज्ञान मैं समझता था सिर्फ़ ममता की भाषा हां वो प्यार ही था चिपका रहता था जिसके कारण हर समय मैं मां की छाती से मगर ज्यों-ज्यों मुझे शब्दों का ज्ञान हुआ प्यार की भाषा बदलने लगी स्वार्थ की भाषा में अब मुझे तभी आती थी मां की याद जब मेरे थके-हारे बदन को जरूरत होती थी मां के आंचल की जहां लेटकर सारी की सारी थकान काफ़ूर हो जाती थी मगर शब्दों का ज्ञान ज्यों-ज्यों बढता गया त्यों-त्यों मां का आंचल भी मुझे प्यार से सहलाने को तरसता रहा मुझको आभास न था कि यह प्यार है मैं तो समझता था कि फ़र्ज है मां का मेरे लिये और मेरा मां के लिये प्यार तो वह है जो 'भंवरा' 'सुमन' से करता है 'चकोर' 'चांद' से करता है और इसी प्यार की खातीर त्याग दिया मैने मां को प्यार के लिये प्यार को यह भी नहीं सोचा 'सुमन' सिर्फ़ तब तक खिलेगा जब तक बसंत है 'चांद' सिर्फ़ तब तक दिखेगा जब तक निशा है मगर मां का प्यार हमेशा रहेगा मेरे/उसके होने या ना होने के बाद भी....
माँ के प्यार पर के ऊपर बहुत अच्छी कविता है, शब्दों से दिल तक जाती है।
- पà¥à¤°à¥à¤·à¤ bhuvnesh sharma | 9/23/2006 08:37:00 pm