सिंदूर ... एक ढोंग
तेरी जूल्फों के घने साये को चिरती हुई; सुरंग सी बनाती हुई निकलती है लालीमा ॰॰॰ हाँ वही जिसे तुम प्यार से सहलाती हो रोजाना सुबह ॰॰ दोपहर ॰॰ शाम और रात को भी मैं वहीं पर बैठा हूँ दिल करता है कुदकर खो जाऊँ तेरी इन जुल्फों में मगर फिर सोचता हूँ जब तुम आईने में देखकर प्यार से सिंदूर सजाओगी तो शायद तुम्हारे हाथो का हल्का सा स्पर्श मेरे जीवन का मुल्य लौटा दे ॰॰॰ मगर अफसोस सिर्फ इतना रहेगा कि इसे माथे पर सजाते वक्त तुम्हारे होंठो पर मेरा नाम नहीं होगा क्योंकि संस्कृति॰॰संस्कार॰॰धर्म का वास्ता देकर बंद कर दिये तुमने अपने दिल के दरवाजे और मेरा नाम तेरे दिल की दिवारों से टकरा-टकराकर दम तोड़ रहा होता है जब किसी 'गैर' के नाम को लम्बी उम्र देने के लिये तेरे द्वारा यह ढोंग रचाया जा रहा होता है ॰॰॰॰॰
nice...
- पà¥à¤°à¥à¤·à¤ बेनामी | 8/13/2006 08:16:00 pm
बहोत अच्छी कविता है|
अरविंद पटेल.
फ्रॉम बॉल्टन-यु.के.
- पà¥à¤°à¥à¤·à¤ Arvind Patel | 8/27/2006 05:28:00 pm
बहुत अच्छे कविराज, कविता का विषय अच्छा लगा।
- पà¥à¤°à¥à¤·à¤ bhuvnesh sharma | 9/23/2006 08:55:00 pm