जगमग दीप करते रोशन अंधकार का नाश करते रंग-रंगोली घर सब सजकर माँ तुम्हारा स्वागत करते चरण-कदम से पावन कर दो खुशियों से तुम झोली भर दो गरीबी का सर्वनाश कर दो धन-कुबेर की वर्षा कर दो जय माँ लक्ष्मी, जय गणेश मन शुभ-शीतल कीजिये द्वेश मुक्त रहे मन सदा कोई वर ऐसा दीजिये माँ लक्ष्मी और प्रभू श्री गणेश के चरणों में "कविराज" का शत्-शत् नमन!!! आप सबको दीपावली की ढ़ेरों शुभकामनाएँ!!!
आजकल जिधर देखो बस हास्य कवि पैदा हो रहे हैं अपने व्यंग्य बाण सारे बेचारे नेताओं पर छोड़ रहे हैं कुत्तों से भी बद्दतर देखो नेता हो गया गधा कहा तो गधा भी नाराज हो गया कैसे-कैसे जुल्म ढ़ाते है ये कवि जानवरों से बद्दतर क्या इंसान हो गया? नेताओं पर होते प्रहार देखकर व्यंग्य का चढ़ता बुखार देखकर मेरा मन है आहत हुआ मन मैं प्रश्नों का समावेश हुआ मिले मृत्यु-दंड हास्य कवि को बिल संसद में रख गये तो? या फिर कल को छोड़ राजनीती नेता सारे कवि बन गये तो? प्रश्नों का सिलसिला चलता रहा मैं भी पगडंडी पर बढ़ता रहा जो थोड़ा आगे बढ़े थे नेताजी तुला चढ़े वाह! लगता है नेताजी सिक्कों से तुल रहें है तभी मारे खुशी के इतना फ़ूल रहे हैं मगर यह क्या नेताजी अचानक कहाँ जा रहे हैं? तभी आवाज आई वो देखो कवि महोदय आ रहें हैं कवि का भय इस कदर घर कर गया है बेचारा नेता अब भारत में भी बैचेन हो गया है क्यूँ ना बढ़े उसके माथे पर सिलवटें कवि भी तो हाईटेक हो गया है हे भारतवर्ष के महान नेता मत कर जरा भी चिंता तेरी खोई इज्जत फिर से लोटाऊँगा तुझे फिर से बहतर इंसान बनाऊँगा मगर तुझे यह वादा करना होगा अपने पाप-कर्मों को धोना होगा अपना जीवन कर समर्पित "मेरा भारत महान" बनाना होगा फिर देखना ये हास्य कवि खुद हास्य मूरत बन जायेंगे पर राष्ट्र उद्धारक नेता तुझको हमेशा सर आँखो पे बिठायेंगे निवेदन : यह मेरा प्रथम-प्रयास है सो उचित टिप्पणी कर मार्गदर्शन करें।
माँ ऐ माँ देख पिछली दिवाली पर काँट-छाँट कर मालिक की उतरन से जो तुमने पेन्ट सिलवाई थी अब घुटनें बाहर झांकने लगे है ॰॰॰ माँ तुम चिन्ता मत करो मैने दर्जी से बात कर ली है दो चड्डियाँ सिल देगा गुल्लु के लिए माँ मैने सुना है फिर से दिवाली आने वाली है ॰॰॰ ऐ माँ मालिक को बोल ना पिछली बार की तरह कोई उतरन ॰॰॰॰
और अन्त में धन्यवाद अर्पित करते हुए आपसे आपके व्यक्तिगत ईमेल को सार्वजनिक करने की इजाजत चाहूँगा, यकिं मानिये इसके पिछे मेरी यह कतई मंशा नहीं है कि मेरे चिट्ठे पर आवागमन बढ़े, बल्कि मैं चाहता हूँ यह गुरू ज्ञान सभी चिट्ठाकारों को नसीब हो। यदि यह मैल आप अपने चिट्ठे पर सार्वजनिक करें तो मुझे और भी ज्यादा खुशी होगी।
आप बस इसी तरह सिखाते रहें, हम हमेशा कुछ ना नया सिखने को लालायित रहते हैं।
प्रणाम!!!
- गिरिराज जोशी "कविराज"
गुरूदेव :-
प्रिय गिरिराज जी,
अरे, आप तो मेरे अनुज हो और मैने तो वही किया जो एक अनुज के साथ किया जाता है. मुझे कोई आपत्ति नहीं है.आप चाहो तो मेरे जवाब को, साथ मे बाद मे जो कुण्डली भेजी और अपना जवाब मिलाकर एक पूरी पोस्ट बनाकर पोस्ट कर लो.पूरा जवाब शायद सबके लिये आवश्यक न हो तो इसे जिस तरह कांट छांट कर एक पोस्ट का रुप देना चाहो, दे लो. शायद कुण्डली सीखने की इच्छा रखने वालों के काम आये और मनोरंजन तो बोनस में हो ही जायेगा. वैसे मै स्वयं कुण्डली का बहुत बड़ा ज्ञाता नहीं हूँ बस तुम्हारी तरह एक जिज्ञासु हूँ और हमेशा नियमों के तहत लिखता भी नहीं हूँ. इसीलिये उसे हमेशा कुण्डलिनुमा ही कहा है. भविष्य में भी अगर अपने अल्प ज्ञान से किसी तरह सहयोगी हो सकूँ तो यह मेरा सौभाग्य होगा.
शुभकामनाओं सहित,
समीर लाल
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और अब अन्त में कुछ कुण्डलियाँ अवलोकनार्थ प्रस्तुत है जो मैने गुरूदेव और रवि रतलामी की टिप्पणियों के प्रतियुत्तर में इस पोस्ट पर रचनाजी की टिप्पणी से प्रभावित होकर लिखी हैं -
(1) कुण्डलियाँ बहुत नियमबद्ध पिछा छोडो इसका रतलामीजी कर गये, टिप्पणी ऐसी चस्पा टिप्पणी ऐसी चस्पा कि अपने नियम बनाओ गज़ल बन गई व्यंजल तुम भी कुछ दिखालाओ बनाओ नियम "कविराज", पार लगाओ नय्या नियम तोड़कर बना लो तुम अपनी कुण्डलियाँ
(2) नियम ग़ज़ल के तोड़कर बना दिया जो व्यंज़ल ग़ज़ल की दुनियाँ में तो मची होगी हलचल मची होगी हलचल कि ग़ज़लकार गुस्सा किये या बतलाओ तो जो वो संग व्यंज़ल हो लिये पुछत "कविराज" अब सुझाएँ क्या रखु मैं नाम तोड़कर जो लिख भी दें, अब नये-नये नियम
(3) "काका" की हैं "गुरूदेव", सचमुच कलम कमाल राह आप दिखाईये, हमको चलनी चाल हमको चलनी चाल के लिखुँगा तोड़-मरोड़ आप ज्ञान बरसाएँ लेखनी दूँगा मोड़ चिन्ता काहे की करें जब आप बनें आका रस्ता पहले ही दिखा दिए "फुलझडिया काका"
गुरूदेव प्रणाम!!!
आदरणीर समीरजी, सादर प्रणाम!
कुछ समय पहले परिचर्चा पर रचना जी के थ्रेड "हमारा घर" पर घूमते-घामते पहूँचे और अपने अंदाज में घरौंदा बनाना शुरू कर दिया। अब आप ही देखें कैसा बना हैं हमारा घरौंदा -
जिस घर में बिताया था मैने अपना बचपन
वो आज चार हिस्सों में तबदील हो गया
कल तक था मैं जिनका लाडला-दुलारा
उनके लिए महज आज पड़ोसी हो गया
हमारे दिल के दर्द को समझते हुए रचनाजी ने कुछ यूँ दर्द बाँटा -
"गिरिराज जी, घर का बँट जाना दुखदायी होता है...आपके लिए "बच्चन जी" की ये पँक्तियाँ कहना चाहती हूँ,, जिसमे उन्होने चिडिया के घर (नीड) की बात की है...
"नीड का निर्माण फिर-फिर
नेह का आव्हान फिर-फिर
कृद्ध नभ के वज्रदँतोँ मे उषा है मुस्कुराती,
घोर गर्जनमय गगन के कँठ मे खग पँक्ति गाती
एक चिडिया चोँच मे तिनका लिए जो जा रही थी
वह सहज मे ही पवन उन्चास को नीचा दिखाती
नाश के दुख से कभी मिटता नही निर्माण का सुख
प्रलय की निस्तब्धता से सृष्टी का नवगान फिर-फिर
नीड का निर्माण फिर-फिरनेह का आव्हान फिर-फिर "
धन्यवाद रचनाजी!!!
किया है हमने भी चंद नये घरों का निर्माण
जहाँ मिली जगह बस ईंटे चुन दी
मेरे एक मित्र "राजीव तनेजा" को दिल्ली में अपना बसा-बसाया आशियां छोड़कर जाना पड़ रहा है, दिल्ली सरकार और सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद वो कर भी क्या सकता है। दो पंक्तियां दिल्ली सरकार और सुप्रीम कोर्ट के इस क्रुर आदेश के विरोध में -
तुम लाख उजाड़ो आशियां हमारा
हमें तिनको से घर बनाना आता है
खुश ना हो यूँ छीन के दाना-पानी
हमें भुखे उदर भी मुस्कुराना आता है
मेरा मानना है कि घर बच्चो से ही बनता है, क्योंकि घर को घर बनाना है तो घर के प्रत्येक सदस्य को बच्चा बनना पड़ता है -
बच्चे सड़को पे भीख मांगते हैं
लोग दिवारों को घर कहते हैं
अब कहने को तो हम दिवारों को भी घर कह सकते है, मगर वो घर कुछ इस प्रकार होगा -
ताऊ-ताई, चाचा-चाची सब मिलजुल कर रहते थे
कौन खिलाएँ मुझको इस बात पे झगड़ा करते थे
झगड़ा तो करते अब भी, पर नहीं मुझे खिलाने को
एक भेजता, दूजा रोकता, दिवारें पार कर जाने को
अब तो बालकनी में जाने पर भी प्रतिबंध लगा चुके हैं
ताऊ-चाचा कभी-कभी बस खिड़की से दिख जाते हैं
पर शब्दों में ना फेर हुआ, अब भी वहीं रहते हैं
पहले भी घर कहते थे, अब भी घर ही कहते हैं ॰॰॰
सागर चन्द नाहर जी को लगता है शायद घर और मकां में कुछ फर्क है, तभी वो मुझसे अंतिम पंक्तियाँ सुधारकर पुनः यों लिखने को कहते हैं -
शब्दों में भी फ़ेर हुआ है, अब भी वहीं रहते है
पहले घर जिसे कहते थे, उसे मकां अब कहते हैं।
मगर सागरजी फैर तो केवल शब्दों का है, बात तो शायद हम एक ही कहना चाह रहें हैं -
नहीं मिलता अब शुकुन जहाँ चैन दिल को
आप उसे मकां और हम उसे घर कहते हैं
या फिर मेरी अगली पंक्तियों पर गौर करें तो ऐसा भी हो सकता है -
कौन कहता है नहीं चैन दिल-ए-जिगर को
शायद नहीं समझा घर हमनें अपने घर को ॰॰॰
मगर हक़िकत तो यह है -
हम समझ पाते घर का मतलब
इससे पहले ही घरौंदा ढह गया
और अंत में विनयजी से शिकायत करना चाहूँगा कि उन्होनें अपने "मीन-मेख अभियान" में हमारे चिट्ठे को शामिल नहीं किया।