मेरे बिखरे शब्दों की समीक्षा - १
कुछ समय पहले परिचर्चा पर रचना जी के थ्रेड "हमारा घर" पर घूमते-घामते पहूँचे और अपने अंदाज में घरौंदा बनाना शुरू कर दिया। अब आप ही देखें कैसा बना हैं हमारा घरौंदा -
जिस घर में बिताया था मैने अपना बचपन
वो आज चार हिस्सों में तबदील हो गया
कल तक था मैं जिनका लाडला-दुलारा
उनके लिए महज आज पड़ोसी हो गया
हमारे दिल के दर्द को समझते हुए रचनाजी ने कुछ यूँ दर्द बाँटा -
"गिरिराज जी, घर का बँट जाना दुखदायी होता है...आपके लिए "बच्चन जी" की ये पँक्तियाँ कहना चाहती हूँ,, जिसमे उन्होने चिडिया के घर (नीड) की बात की है...
"नीड का निर्माण फिर-फिर
नेह का आव्हान फिर-फिर
कृद्ध नभ के वज्रदँतोँ मे उषा है मुस्कुराती,
घोर गर्जनमय गगन के कँठ मे खग पँक्ति गाती
एक चिडिया चोँच मे तिनका लिए जो जा रही थी
वह सहज मे ही पवन उन्चास को नीचा दिखाती
नाश के दुख से कभी मिटता नही निर्माण का सुख
प्रलय की निस्तब्धता से सृष्टी का नवगान फिर-फिर
नीड का निर्माण फिर-फिरनेह का आव्हान फिर-फिर "
धन्यवाद रचनाजी!!!
किया है हमने भी चंद नये घरों का निर्माण
जहाँ मिली जगह बस ईंटे चुन दी
मेरे एक मित्र "राजीव तनेजा" को दिल्ली में अपना बसा-बसाया आशियां छोड़कर जाना पड़ रहा है, दिल्ली सरकार और सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद वो कर भी क्या सकता है। दो पंक्तियां दिल्ली सरकार और सुप्रीम कोर्ट के इस क्रुर आदेश के विरोध में -
तुम लाख उजाड़ो आशियां हमारा
हमें तिनको से घर बनाना आता है
खुश ना हो यूँ छीन के दाना-पानी
हमें भुखे उदर भी मुस्कुराना आता है
मेरा मानना है कि घर बच्चो से ही बनता है, क्योंकि घर को घर बनाना है तो घर के प्रत्येक सदस्य को बच्चा बनना पड़ता है -
बच्चे सड़को पे भीख मांगते हैं
लोग दिवारों को घर कहते हैं
अब कहने को तो हम दिवारों को भी घर कह सकते है, मगर वो घर कुछ इस प्रकार होगा -
ताऊ-ताई, चाचा-चाची सब मिलजुल कर रहते थे
कौन खिलाएँ मुझको इस बात पे झगड़ा करते थे
झगड़ा तो करते अब भी, पर नहीं मुझे खिलाने को
एक भेजता, दूजा रोकता, दिवारें पार कर जाने को
अब तो बालकनी में जाने पर भी प्रतिबंध लगा चुके हैं
ताऊ-चाचा कभी-कभी बस खिड़की से दिख जाते हैं
पर शब्दों में ना फेर हुआ, अब भी वहीं रहते हैं
पहले भी घर कहते थे, अब भी घर ही कहते हैं ॰॰॰
सागर चन्द नाहर जी को लगता है शायद घर और मकां में कुछ फर्क है, तभी वो मुझसे अंतिम पंक्तियाँ सुधारकर पुनः यों लिखने को कहते हैं -
शब्दों में भी फ़ेर हुआ है, अब भी वहीं रहते है
पहले घर जिसे कहते थे, उसे मकां अब कहते हैं।
मगर सागरजी फैर तो केवल शब्दों का है, बात तो शायद हम एक ही कहना चाह रहें हैं -
नहीं मिलता अब शुकुन जहाँ चैन दिल को
आप उसे मकां और हम उसे घर कहते हैं
या फिर मेरी अगली पंक्तियों पर गौर करें तो ऐसा भी हो सकता है -
कौन कहता है नहीं चैन दिल-ए-जिगर को
शायद नहीं समझा घर हमनें अपने घर को ॰॰॰
मगर हक़िकत तो यह है -
हम समझ पाते घर का मतलब
इससे पहले ही घरौंदा ढह गया
और अंत में विनयजी से शिकायत करना चाहूँगा कि उन्होनें अपने "मीन-मेख अभियान" में हमारे चिट्ठे को शामिल नहीं किया।
divare gharo ko baant sakti hai
dilo ko nahi
daha sakti hai divare
agar dilo me ho vishavas
aahsas or pyaar.
- पà¥à¤°à¥à¤·à¤ बेनामी | 10/07/2006 06:32:00 pm
जोशीजी अब किन शब्दों में आपका शुक्रिया अदा करूं बस इतना ही अनुरोध है कि आगे भी ऐसी रचनाएं पढ़ने को मिलें।
- पà¥à¤°à¥à¤·à¤ bhuvnesh sharma | 10/08/2006 09:55:00 pm
Kaviraaj, mujhe aapki is kavita ne aaj-kal ke bikharate risto aur gharo k baare me sochane per majboor kar diya. Its realy a good poem which has a important moral.
- पà¥à¤°à¥à¤·à¤ बेनामी | 10/09/2006 04:35:00 pm
मैं उन घरों को मकां कह रहा हूँ जिनमें लोग रहते तो हैं पर उनमें प्रेम नहीं होता, बस एक यंत्रवत जिन्दगी जी रहे होते हैं।
- पà¥à¤°à¥à¤·à¤ Sagar Chand Nahar | 10/13/2006 06:12:00 pm