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मेरे बिखरे शब्दों की समीक्षा - ४

परिचर्चा में हम कितनी देर से पहुँचे इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि हमारे पहुँचने से पहले बैत बाजी के दो मुकाबले समाप्त हो चुके थे और तिसरा करीब आधा सफ़र तय कर चुका था मगर फिर भी "बैत बाजी संख्या : ३" में हिस्सा लेना मजेदार रहा। यह भी "काव्यांताक्षरी - १" की तरह ही रेलगाड़ी के डिब्बों जैसा शेर-ओ-शायरी का अखाड़ा था। अब इस अखाड़े में बिताए पल लिए हाज़िर हूँ -
जब पहुँचे तो सागर भाई "साहिर लुधियानवीजी" की ये पंक्तियाँ लिये अपने महबूब को समझा रहे थे -
ताज तेरे लिये इक मज़हर-ए-उल्फ़त ही सही
तुम को इस वादी-ए-रंगीं से अकीदत ही सही
मेरे महबूब कहीं और मिला कर मुझसे
बज़्म-ए-शाही में गरीबों का गुज़र क्या मानी
सब्त जिस राह पे हों सतावत-ए-शाही के निशां
उस पे उल्फ़त भरी रूहों का सफ़र क्या मानी
अब जब बात महबूब की चल रही थी तो हम भी अपने अनुभव बता लगे -
हम लगे थे गिनने अपनी-अपनी धड़कने ॰॰॰
गिनती चलती रही ॰॰॰ धड़कने बढ़ती रही ॰॰॰
"नये हो तो क्या नियम तोड़ेंगे???"
कुछ यही सिखाते हुए मनिष भाई आए और हमारी पोस्ट को अपूर्ण रूप से मिटाते हुए यह नसीहत दे डाली -
"कविराज जी अच्छा शेर है आपका, पर आपने बैत बाजी के नियम शायद नहीं देखे । आपको अपना शेर उस अक्षर से शुरू करना है जिस अक्षर से पिछले ने खत्म किया था । यानि न से"
मनिष के निर्देशों का पालन करते हुए हम ४ वर्ष पुराना आईटम झाड़-पौंछ कर उठा लाये और शुरू कर दी "बैत बाजी संख्या : ३" में अपनी सक्रिय भूमिका -
न तुम समझ पाये, न हम समझा पाये
न तुम कह पाये, न हम समझ पाये
निकलती रही आहें, बहते रहे आंसू
न तुम रोक पाये, न हम रोक पाये
कृष्णाजी "वसीम बरेल्वी जी" का यह शेर लेकर आए -
यही सोच कर कोई वादे-वफा करो हमसे,
कि हम एक वादे पे तमाम उम्र गुज़ार लेते है
और अब हमें मौका मिला अपनी धड़कनों की नियमों के तहत गिनती करने का, सो पुनः ले आए मनिषजी द्वारा अपूर्ण रूप से हटाया गया शेर। फिर सोचा कहीं कोई यह ना कह दे "गिरिराज एक ही शेर कितनी बार सुनाओगे" सो फटाफट दूसरा भी पोस्ट कर दिया -
हम ही ना समझ पाये अब तक अपने यार को
ताली बजा के वो कहता है हम अच्छे नहीं शायर
सागर भाई ने कभी जवानी में इश्क को अजमाकर देखा होगा तभी ले आए "फ़ैज अहमद फ़ैज साहब" की यह गज़ल -
राज-ए-उल्फ़त छुपा के देख लिया
दिल बहुत कुछ जला के देख लिया
और क्या कुछ देखने को बाकी है
आपसे दिल लगा के देख लिया
वो मेरे हो के भी मेरे न हुए
उनको अपना बना के देख लिया
आज उनकी नजर मैं कुछ हमने
सबकी नजर बचा के देख लिया
"फ़ैज" तकमील-ए-गम भी हो ना सका
इश्क को आजमा के देख लिया
आस उस डर से टूटी ही नहीं
जा के देख, ना जाके देख लिया
हमने भी गज़ल का जवाब अपनी इस गज़ल (संभवतयाः, मैं अभी गज़ल नियमावली से पूर्ण रूपेण परिचित नहीं हूँ) से दिया -
यादो के पन्नो को पलटनें से क्या होगा
नज़रों में ख्वाबों को संजोने से क्या होगा
अब आवाज देकर बैचेन ना कर उसे
आ ना सके जो बुलाने से क्या होगा
भूल पाना वस में नहीं जानता है जब
दिल से तस्वीर यों मिटाने से क्या होगा
प्यास बुझेगी उसकी जब लहू से तेरे
तन्हाई को आंसू ये पिलाने से क्या होगा
कागज पर उकेर कर नाम यों "कविराज"
बार-बार याद उसे करने से क्या होगा
फिर अकारणवश हम एक हफ्ते तक "बैत बाजी" से दूर रहे मगर सागर भाई और मनिष भाई में "बैत बाजी" चलती रही। जब हम लौटे तो मनिष भाई यह कहते मिले -
हम नगमा सारा कुछ गजलों के हम सूरत गर कुछ ख्वाबों में
बे जज्बा ए शौक सुनाएँ क्या कोई ख्वाब ना हो तो बतायें क्या फिर आँखें लहू से खाली हैं, ये शमाएँ बुझने वाली हैं
खुद भी एक सवाली हैं , इस बात पे हम शर्मायें क्या
और उस पर बे-सिर-पैर की हमारी पंक्तियाँ -
या खुदा दे मुझे बेखुदी इतनी
के खुद बेखुदी मुझे अपना खुदा समझ बैठे
और दे उनको इतना चैन-ओ-शुकुन
के हर देखने वाला उन्हें पैगम्बर समझ बैठे
सागर भाई नशा भी करते हैं यह हमें तब पता चला जब वो खुद कहते हुए मिले "मैं नशे में हूँ", "शाहिद कबीर" की इन पंक्तियों के साथ -
ठुकराओ या प्यार करो मैं नशे में हूँ
जो चाहो मेरे यार करो,मैं नशे में हूँ
अब भी दिला रहा हुँ यकीन-ए-वफ़ा मगर
मेरा ना एतबार करो,मैं नशे में हूँ
इधर हमारे लिए दोस्तो को समझ पाना भी कठिन हो रहा था -
हम ही ना समझ पाए अब तक अपने यार को
ताली बजा के वो कहता है हम अच्छे नहीं शायर ॰॰॰
ज्ञानी आत्मा श्री नाहर "अहमद फ़राज" के शब्दों में किसी को पुकारने लगे -
रंजिश ही सही दिल दुखाने के लिये आ...
आ फ़िर से मुझे छोड़ के जाने के लिये आ
और फिर इतिहास के पन्नों को पलटते हुए उठकर चल दिये -
"अहमद फ़राज की इस गज़ल में ये दो अशआर तालिब बागपती ने जोड़े हैं जिन्हें मेहंदी हसन साहब अपनी गज़ल में गाते हैं"
माना कि मुहब्बत का छिपाना है मुहब्बत
चुपके से किसी रोज जताने के लिये आ
जैसे तुझे आते हैं ना आने के बहाने
ऐसे ही किसी रोज़ ना जाने के लिये आ
उनका उठकर जाना हमें इस तरह खला -
आप उठकर गये तो लगा अंधा हो गया हूँ
अंधेरे में बैठा हूँ गुमान ही न था !!!
मनिषजी थके-थके से फिर आए और "कतील शिफाई" के शब्दों में शायद अपने महबूब से कहने लगे -
थक गया मैं याद करते करते तुझको
अब तुझे मैं याद आना चाहता हूँ । आखिरी हिचकी तेरे जानों पे आए
मौत भी मैं शायराना चाहता हूँ अपने होठों पर सजाना चाहता हूँ
आ तुझे मैं गुनगुनाना चाहता हूँ
हम भी पुनः शिकायती तेवरों के साथ हाज़िर हुए -
हमने गुजार दी ताउम्र जिनकों समझने में
वो कहते है नहीं कोई सुलझा हुआ हमसा ॰॰॰
तो नाहर भाई "निदा फ़ाजली" के शब्दों में जीवन मुल्यों की हक़िकत से अवगत करवाने लगे -
सब की पूजा एक सी, अलग अलग हर रीत
मस्जिद जाये मौलवी, कोयल गाये गीत
पूजा घर में मूर्ती, मीरां के संग श्याम
जितनी जिसकी चाकरी, उतने उसके दाम
सीता- रावण, राम का, करे विभाजन लोग
एक ही तन में देखिये तीनों का संजोग
मिट्टी से मिट्टी मिले, खो के सभी निशान
किस में कितना कौन है, कैसे हो पहचान
मनिषजी "साकी" को समझाने लगे की अभी उसके खेलने खाने के दिन है -
ना कह साकी बहार आने का दिन है
जिगर के दाग छिल जाने के दिन हैं
कहें क्या राज - ए - मोहब्बत तुमसे
तुम्हारे खेलने - खाने के दिन हैं
तो हम भी अपनों को वापस अपने शहर बुलाने लगे -
हो सके तो लौट आना फिर अपने शहर में
दो निगाहें आज भी अपलक है इंतजार में
मनिषजी पुनः लौटे "जावेद अख्तर" साहब के शब्दों में और बुलाने लगे किसी को मिलने के लिए -
मुझे गम है कि मैने ज़िन्दगी मे कुछ नहीं पाया
यह गम दिल से निकल जाये ,अगर तुम मिलने आ जाओ
यह दुनिया भर के झगड़े, घर के किस्से, काम की बातें
बला हर एक टल जाये, अगर तुम मिलने आ जाओ
और फिर अंत में रहा हमारा यह शेर -
अन्दर समेट लो तूफां ॰॰॰ कुछ नहीं होगा
दीया भी तब बुझेगा, जब फूंक मारोगे!!!
और एक बार फिर वही निवेदन करते हुए मैं चाहूँगा कि आप भी परिचर्चा में शिरकत कर महफ़िल को यादगार बनाऐं।

भाईसाब ये महफिलें अपने बुते की बात नही है। :-)

वैसे मै भी बहुत दिनो से परिचर्चा मे नही गया...

हमेशा की तरह बहुत बढिया - वैसे फिलहाल मैं ने सिर्फ ऊपर की शायरी पढ कर बाकी अपने कम्पयूटर पर कॉपी करलिया बाद मे पढूंगा :)

vaah kaviraaj aap to aajakal roomani hote jaa rahe hain.
majaa aa gayaa lage rahiye aise hee apne bikhare shabdoM ki sameekshaa mein

बहुत सुन्दर तरीके से परिचर्चा की चर्चा की आपने "चिठ्ठाचर्चा" की तरह

सागरजी ने सही कहा 'परिचर्चा की चर्चा'.
बहुत खुब.

मुझे गम है कि मैने ज़िन्दगी मे कुछ नहीं पाया
यह गम दिल से निकल जाये ,अगर तुम मिलने आ जाओ...
वाह बहुत खूब!

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मेरा परिचय

  • नाम : गिरिराज जोशी
  • ठिकाना : नागौर, राजस्थान, India
  • एक खण्डहर जो अब साहित्यिक ईंटो से पूर्ननिर्मित हो रहा है...
मेरी प्रोफाईल

पूर्व संकलन

'कवि अकेला' समुह

'हिन्दी-कविता' समुह

धन्यवाद

यह चिट्ठा गिरिराज जोशी "कविराज" द्वारा तैयार किया गया है। ब्लोगर डोट कोम का धन्यवाद जिसकी सहायता से यह संभव हो पाया।
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