जय हास्य, जय नेता!!!
वैसे हास्य-रस में अपना हाथ थोड़ा तंग है मगर आहत होकर अभी हास्य-रस की अपनी पहली कविता लिख रहा हूँ ॰॰॰ अरे! इसमें आश्चर्य की कौनसी बात है, मैं अमुमन कविताएँ आहत होकर ही लिखता हूँ। अब आप कहेंगे कि मैने प्रेम-रस में भी हाथ मारे हैं तो भईये कोई प्रेम से भी तो आहत हो सकता है, नहीं क्या???
हाँ यह प्रश्न थोड़ा उचित लगा कि आहत हैं तो हास्य क्यों?
अरे भाई आहत भी तो हास्य से हैं तो "गांधीगिरी" नहीं लगायेंगे क्या???
देखिये ना आए दिन हास्य कवि-सम्मेलन होते रहते हैं और हास्य पैदा करने के लिए हर बार मोहरा बनता है बेचारा नेता। अब यह तो नेता लोगों कि सराफ़त हैं कि वो झेल रहें है वरना कभी का विधेयक पारित कर फांसी दिला दिये होते सभी हास्य कवियों को और मुझे दिला दिये होते भारत रत्न!!! , खैर अपनी तो किस्मत ही खोटी है।
हमने इस विषय को गंम्भीरता से लेते हुए भविष्य में देखने की चेष्ठा की है, खानदानी पंडित जो ठहरा! पहले सोचा कि अपने चिर-परिचित अंदाज मैं ही यूँ लिखुँ -
हाय रे नेता
तेरी फूटी किस्मत
दर्द तेरा
अब कौन समझें
बना कठपुतली
तुझे चाहे नचाना
क्या मालुम???
इन हास्य कवियों को
जोड़-तोड़ की
यह सत्ता अनोखी
तु होकर मानव
कैसे चलाये ॰॰॰
मगर फिर यकायक ठान लिया कि जब हास्य से आहत हैं तो हास्य ही लिखेंगे, अरे जब कुण्डलियों हाथ डाल दिया तो हास्य कौनसा मुश्किल है, ठोक देंगे ताल वहाँ भी।
अभी मैं अपनी संभवतया पहली (संभवतया इसलिए कि क्या पता पहले कहीं दो-चार लाईन ठोक दी हो, आजकल याद कम ही रहता है) हास्य कविता लिख रहा हूँ, मुनादि पहले पीट रहा हूँ ताकि कल को यह सुनने को ना मिले - "कविराज पगला गये हैं आजकल जाने क्या-क्या लिखने लगे हैं"
किसी को हास्य-कवियों पर हास्य-रस में हास्य-वार से एतराज हो तो कल हमारे चिट्ठे पर ना आईयेगा।
जय हास्य, जय नेता!!!
बहूत अच्छि शुरुआत है कविराज लिखते रहिए। आगे इंतजार रहेगा।
- पà¥à¤°à¥à¤·à¤ bhuvnesh sharma | 10/14/2006 04:30:00 pm
कविराज,
कुछ तो दूसरों के लिये छोड़ दो, सारे तरीकों से आप ही लिखने लगोगे तो बकौल जीतू भाई और समीर लाल जी, दूसरे क्या तेल बेचेंगे?
- पà¥à¤°à¥à¤·à¤ Sagar Chand Nahar | 10/14/2006 06:31:00 pm
ताकि कल को यह सुनने को ना मिले - "कविराज पगला गये हैं आजकल जाने क्या-क्या लिखने लगे हैं"
काल करे सो आजकर...।एतना घबराओ नहीं कुछ तो लोग कहेंगे न!
- पà¥à¤°à¥à¤·à¤ अनूप शुक्ल | 10/14/2006 07:07:00 pm
कविराज, आप बिल्कुल सही जा रहे हैं। जब ऊखल में सिर दिया है तो मूसल से क्या डरना। अब कवि बन ही गए हैं, तो बेहिचक हर विधा में टांग अड़ाएँ और बिल्कुल न घबराएँ। :-)
- पà¥à¤°à¥à¤·à¤ Pratik Pandey | 10/14/2006 07:15:00 pm