मेरे बिखरे शब्दों की समीक्षा - २
परिचर्चा के थ्रेड "काव्यांताक्षरी - १" में हिस्सा लेना एक सुखद अनुभव रहा। पहली कविता के अंतिम अक्षर से अगली कविता और फिर उसके अंतिम अक्षर से एक और नई कविता। बिलकुल रेलगाड़ी के डिब्बों की तरह आपस में जुड़ी कविताओं में विभिन्न विचारधाराओं का अदभुद संगम हुआ। इस पोस्ट अपने उन्ही अनुभवों को आपके साथ बांट रहा हूँ -
जब हम "काव्यांताक्षरी - १" में पहुँचे तो रचनाजी अपनी ये पंक्तियाँ लिये बैठी थी -
थी शक्ति कलम मे तब अपार
न था शब्दोँ का तब व्यापार
पढकर ह्रदय प्रफुल्लित होता
या फिर आँखेँ नम होती थी
तब लेखनी मे था जादू
तब कविता, कविता होती थी !!
हमने भी रचना जी की हाँ में हाँ मिलाते हुए उनकी पंक्तियों को कुछ विस्तृत करने का प्रयास किया और इसके लिए क्षमा याचना भी -
थी तब शब्दों में स्वर्ण झंनकार
ना लगता तब "कलम-बाजार"
मुक्त आलिंगन शब्द-आत्म भरते
ना था तब शब्द-वेश्य-बाजार
थी प्रहरी बनकर रक्षा करती
ना करती कलम यों हृदयाघात
पढकर हृदय प्रफुल्लित होता
या फिर आँखेँ नम होती थी
तब सचमुच लेखनी मे था जादू
तब कविता, कविता होती थी !!
रचना दीदी ने भी हमे क्षमा किया और फिर "थ" पर छोड़ने के लिए शिकायत भी -
कोई बात नही गिरिराज जी जो आपने मेरी पँक्तियोँ का उपयोग किया...वैसे आपकी पन्क्तियाँ नीचे रखते तो 'थ' फिर से नही आता..खैर..
और काव्यांताक्षरी को आगे बढ़ाते हुए "बच्चन साहब" की ये पंक्तियाँ गुनगुना गई -
"था एक समय, थी मधुशाला,
था मिट्टी का घट, था प्याला,
थी, किन्तु, नहीँ साकीबाला,
था बैठा ठाला विक्रेता
दे बन्द कपाटोँ पर ताला.
मै मधुशाला की मधुबाला!"
मेरे कवि मित्र श्री विश्व दीपक "तन्हाजी" ने इतनी हृदयता से "वसन्त" का स्वागत किया कि मैं अपने आप को रोक ना सका और काव्यांताक्षरी को आगे बढ़ाते हुए कुछ पंक्तियां मित्र श्री विश्व दीपक "तन्हाजी" को समर्पित की -
लिए मधुर मुस्कान मुख पे
सुन्दरता का प्रमाण लिए।
एक कलम को देखा मैने
ना कभी कोई श्रृंगार किए।
हर चमन को करती रोशन
सुमन, अनंत पवन लिए।
आओ मित्रों आज हम मिलके
स्वागत, कुंकुम, तिलक करें।
ऐसी स्वच्छ, सुन्दर कलम के
चरणों में अपना शीश धरें।
रत्ना जी रजनीगंधा के महकने पर शिकायती तेवरों में यह पंक्तियाँ लेकर हाजिर हुई -
रजनी गंधा चमन में महकी
सोई यादें ज़हन में चहकीं
उनका वो गुलदस्ता लाना
वेणी में एक फूल सजाना
नयनों का बरबस शर्माना
दांतों से अधरों को दबाना
मूक ज़ुबां से हाल सुनाना
इक दूजे पर जान लुटाना
हाय गया वो कहां ज़माना
क्यों हम भूले प्यार जताना
दिल में फिर चिंगारी दहकी
रजनी गंधा क्यों तुम महकी
रत्ना जी की इन पंक्तियों ने हमें भी विचलित कर दिया और हम भी एक साथ कईं सवाल लेकर हाज़िर हुए उनके समक्ष -
कब का था वो सोया पड़ा
क्यों उसको यूँ जगा दिया?
कहकर "भूले प्यार जताना"
क्यों दुखती रग को दबा दिया?
वो गुलदस्ता लाते,
जान लुटाते,
वेणी में फिर फूल सजाते
वो नयन शर्माते,
मूक ज़ुबां से हाल सुनाते
ये सब यादें,जीवन,वसन्त
क्यों इनको फिर याद किया?
दिल में जो फिर चिंगारी दहकी
क्यों शोला उसको बना दिया?
कहो "रत्नाजी" गर वो महकी
क्यों "रजनी गंधा" को दोष दिया?
रत्ना जी भी ज्यादा देर चुप रहने वाले नहीं थे तुरन्त बदलते प्रेम की नई परिभाषा को समय का सितम कहते हुए यूँ हाज़िर हुई -
यह तो सितम समय ने ढाया
वेणी को दुर्लभ चीज़ बनाया
प्रियतम कहाँ पर फूल सजाए
प्रेयसी लजा कर कैसे रिझाए
अब न चले नयनों की भाषा
बदली प्रेम की है परिभाषा
सरपट दौड़े प्यार का धंधा
Sms करता हर कोई बंदा
अब क्यों महके रजनी गंधा
रत्ना जी के शब्दों में हमें सच्चाई दिखी सो तुरन्त उनके साथ हो लिये -
धारण शब्द तीरों को करके
क्या खूब है हथियार उठाया
बदलते वैश्विक मुल्यों में सचमुच
प्रेम रहता अब खोया-खोया
बदल गई है नैनो की भाषा
सचमुच बदली प्रेम परिभाषा
अब कौन करें "प्रिय" का इंतजार
सचमुच खो गया है प्यार ॰॰॰
इसी क्रम में रचनाजी, मनिषजी, रत्नाजी काव्यांताक्षरी को आगे बढ़ाते हुए पुनः "थ" पर ले आए तो हमें भी अनायास ही अपनी दो वर्ष पुरानी पंक्तियाँ याद आ गई -
थाम कर हाथ
चलेंगें साथ
वो सफ़र वादो का
जो
शुरू किया था कभी
तुमने
बिना सोचे समझे
अभी
बहुत तय करना
बाकी है
और तुम पुछते हो
कहाँ व्यस्त रहते हो?
रत्ना जी ने बिना देर किये अपने अनुभवों से हमें आग़ाह किया -
हाथों से जो फिसल गया
वो लम्हा कहीं खो जाता है
वक्त के सागर में जो डूबा
कभी उभर न पाता है
वादे तो बस वादे है
उन पर कैसे करें यकीन
सब कुछ भूलकर नाचे इंसान
समय की जब बजती है बीन।।
मगर जोश से लबालब भरा मेरा मन रत्ना जी की अनुभवों को मानने को तैयार नहीं था, सो असहमति प्रकट की -
नहीं रतना जी
मैं इससे सहमत नहीं
आपने शायद उसे
ठीक से थामा नहीं
वरनावो लम्हा यों
फिसलकर कहीं खोता नहीं
वक्त का सागर हो
या फिर वादों का अम्बर
डरकर भागना
अपनी तो फितरत नहीं
यकीं है खुद पर
शायद तभी समय की बीन
हमको तो नचाती नहीं!!!
तो रत्ना जी ने भी हमारा सीना वक्त के सामने यूँही तना रहे, इसके लिए कामना की -
हम आज करते यही कामना
यकीन आपका बना रहे
वक्त के आगे तना जो सीना
वो बस हर दम तना रहे
हमने भी रत्ना जी की शुभकामनाओं को स्वीकार करते हुए उनको धन्यवाद दिया -
हे मित्र!
हम धन्य हुए
पाकर तेरा साथ
सीना और भी तन गया है
दुआओं का हाथ
यकीन यूँही बना रहेगा
सीना यूँही तना रहेगा
अब वक्त के आगे
सच कहूँ तो
खेल-तमाशा लगता है
मित्र आपकी दूआओं से
होंसला बढ़ता लगता है
तभी रचनाजी अचानक झकझोर देने वाले प्रश्नों के साथ पुनः अवतरित हुई -
हरदम जग से कुछ माँगा ही, कभी सोचा है, क्या दे पाए?
अपना हक तो हरदम छीना, कर्तव्य कभी निभा पाए?
कितनो को रोते देखा है, क्या उन्हे कभी हँसा पाए?
मानव का जन्म लिया तुमने, मानवता कभी जता पाए?
रचनाजी के शब्दों की महता को समझते हुए हमने जवाब कुछ यूँ दिया -
रचना जी आपकी पंक्तियाँ काबिले-गौर है, मैं पूरी ईमानदारी से इनका पालन करने की चेष्ठा करूंगा। मैने आपकी पंक्तियों पर भारतीय नेताओं की सोच को व्यंगात्मक रूप में दर्शाने का छोटा सा प्रयत्न किया है, कहीं सुधार की आवश्यकता हो तो मार्गदर्शन की अपेक्षा रखता हूँ -
एक बात पते की लो हम भी आज बतलाते है
मानवता और मानव में जो भेद वो दिखलाते है
देने की ना बात करो क्या जग को अब देंगे हम
तृष्णा अपनी शान्त न होती खाएँ-पिंएँ उतना कम
छीना-छपटी करना जब है गुण आनुवांशिक अपना
तो कहो क्यूँ देखे फिर कर्तव्य निभाने का सपना
नहीं देखा हमने अब तक कहीं किसी को भी रोता
आँखे बंद ही करके निकले हो अजनबी चाहे नाता
मानव का जन्म लिया है पर नहीं मुझमें मानवता
अरे भाई पहचानों मुझको मैं हूँ भारतवर्ष का नेता
इसी तरह "काव्यांताक्षरी - १" आगे बढ़ती रही ॰॰॰
आनंदमयी तथा अद्भुद कविता रस पिलाने के लिये आभारी हूं।
- पà¥à¤°à¥à¤·à¤ बेनामी | 10/16/2006 03:10:00 pm
लगे रहिए कविराज मजा आ रहा है.
- पà¥à¤°à¥à¤·à¤ bhuvnesh sharma | 10/17/2006 12:10:00 am
बिखरे मोतियो को एक सूत्र मे पिरोकर परोसना बहुत ही मनोरम था, जिसक प्रकार आप और रचना जी ने इस काव्यांताक्षरी - १ को विस्तार रूप दिया और गजब की तुक बन्दी की। आपने तो इसका रसास्वादन कराकर पुरानी यादे ताजा कर दी। आज कुछ पुरानी यादो की झलकिया भी देखने को मिली।
आपके द्वारा यह प्रस्तुति प्रसंसनीय रही।
- पà¥à¤°à¥à¤·à¤ बेनामी | 10/17/2006 08:45:00 am