शनिवार, अक्तूबर 28

मेरे बिखरे शब्दों की समीक्षा - ४

परिचर्चा में हम कितनी देर से पहुँचे इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि हमारे पहुँचने से पहले बैत बाजी के दो मुकाबले समाप्त हो चुके थे और तिसरा करीब आधा सफ़र तय कर चुका था मगर फिर भी "बैत बाजी संख्या : ३" में हिस्सा लेना मजेदार रहा। यह भी "काव्यांताक्षरी - १" की तरह ही रेलगाड़ी के डिब्बों जैसा शेर-ओ-शायरी का अखाड़ा था। अब इस अखाड़े में बिताए पल लिए हाज़िर हूँ -
जब पहुँचे तो सागर भाई "साहिर लुधियानवीजी" की ये पंक्तियाँ लिये अपने महबूब को समझा रहे थे -
ताज तेरे लिये इक मज़हर-ए-उल्फ़त ही सही
तुम को इस वादी-ए-रंगीं से अकीदत ही सही
मेरे महबूब कहीं और मिला कर मुझसे
बज़्म-ए-शाही में गरीबों का गुज़र क्या मानी
सब्त जिस राह पे हों सतावत-ए-शाही के निशां
उस पे उल्फ़त भरी रूहों का सफ़र क्या मानी
अब जब बात महबूब की चल रही थी तो हम भी अपने अनुभव बता लगे -
हम लगे थे गिनने अपनी-अपनी धड़कने ॰॰॰
गिनती चलती रही ॰॰॰ धड़कने बढ़ती रही ॰॰॰
"नये हो तो क्या नियम तोड़ेंगे???"
कुछ यही सिखाते हुए मनिष भाई आए और हमारी पोस्ट को अपूर्ण रूप से मिटाते हुए यह नसीहत दे डाली -
"कविराज जी अच्छा शेर है आपका, पर आपने बैत बाजी के नियम शायद नहीं देखे । आपको अपना शेर उस अक्षर से शुरू करना है जिस अक्षर से पिछले ने खत्म किया था । यानि न से"
मनिष के निर्देशों का पालन करते हुए हम ४ वर्ष पुराना आईटम झाड़-पौंछ कर उठा लाये और शुरू कर दी "बैत बाजी संख्या : ३" में अपनी सक्रिय भूमिका -
न तुम समझ पाये, न हम समझा पाये
न तुम कह पाये, न हम समझ पाये
निकलती रही आहें, बहते रहे आंसू
न तुम रोक पाये, न हम रोक पाये
कृष्णाजी "वसीम बरेल्वी जी" का यह शेर लेकर आए -
यही सोच कर कोई वादे-वफा करो हमसे,
कि हम एक वादे पे तमाम उम्र गुज़ार लेते है
और अब हमें मौका मिला अपनी धड़कनों की नियमों के तहत गिनती करने का, सो पुनः ले आए मनिषजी द्वारा अपूर्ण रूप से हटाया गया शेर। फिर सोचा कहीं कोई यह ना कह दे "गिरिराज एक ही शेर कितनी बार सुनाओगे" सो फटाफट दूसरा भी पोस्ट कर दिया -
हम ही ना समझ पाये अब तक अपने यार को
ताली बजा के वो कहता है हम अच्छे नहीं शायर
सागर भाई ने कभी जवानी में इश्क को अजमाकर देखा होगा तभी ले आए "फ़ैज अहमद फ़ैज साहब" की यह गज़ल -
राज-ए-उल्फ़त छुपा के देख लिया
दिल बहुत कुछ जला के देख लिया
और क्या कुछ देखने को बाकी है
आपसे दिल लगा के देख लिया
वो मेरे हो के भी मेरे न हुए
उनको अपना बना के देख लिया
आज उनकी नजर मैं कुछ हमने
सबकी नजर बचा के देख लिया
"फ़ैज" तकमील-ए-गम भी हो ना सका
इश्क को आजमा के देख लिया
आस उस डर से टूटी ही नहीं
जा के देख, ना जाके देख लिया
हमने भी गज़ल का जवाब अपनी इस गज़ल (संभवतयाः, मैं अभी गज़ल नियमावली से पूर्ण रूपेण परिचित नहीं हूँ) से दिया -
यादो के पन्नो को पलटनें से क्या होगा
नज़रों में ख्वाबों को संजोने से क्या होगा
अब आवाज देकर बैचेन ना कर उसे
आ ना सके जो बुलाने से क्या होगा
भूल पाना वस में नहीं जानता है जब
दिल से तस्वीर यों मिटाने से क्या होगा
प्यास बुझेगी उसकी जब लहू से तेरे
तन्हाई को आंसू ये पिलाने से क्या होगा
कागज पर उकेर कर नाम यों "कविराज"
बार-बार याद उसे करने से क्या होगा
फिर अकारणवश हम एक हफ्ते तक "बैत बाजी" से दूर रहे मगर सागर भाई और मनिष भाई में "बैत बाजी" चलती रही। जब हम लौटे तो मनिष भाई यह कहते मिले -
हम नगमा सारा कुछ गजलों के हम सूरत गर कुछ ख्वाबों में
बे जज्बा ए शौक सुनाएँ क्या कोई ख्वाब ना हो तो बतायें क्या फिर आँखें लहू से खाली हैं, ये शमाएँ बुझने वाली हैं
खुद भी एक सवाली हैं , इस बात पे हम शर्मायें क्या
और उस पर बे-सिर-पैर की हमारी पंक्तियाँ -
या खुदा दे मुझे बेखुदी इतनी
के खुद बेखुदी मुझे अपना खुदा समझ बैठे
और दे उनको इतना चैन-ओ-शुकुन
के हर देखने वाला उन्हें पैगम्बर समझ बैठे
सागर भाई नशा भी करते हैं यह हमें तब पता चला जब वो खुद कहते हुए मिले "मैं नशे में हूँ", "शाहिद कबीर" की इन पंक्तियों के साथ -
ठुकराओ या प्यार करो मैं नशे में हूँ
जो चाहो मेरे यार करो,मैं नशे में हूँ
अब भी दिला रहा हुँ यकीन-ए-वफ़ा मगर
मेरा ना एतबार करो,मैं नशे में हूँ
इधर हमारे लिए दोस्तो को समझ पाना भी कठिन हो रहा था -
हम ही ना समझ पाए अब तक अपने यार को
ताली बजा के वो कहता है हम अच्छे नहीं शायर ॰॰॰
ज्ञानी आत्मा श्री नाहर "अहमद फ़राज" के शब्दों में किसी को पुकारने लगे -
रंजिश ही सही दिल दुखाने के लिये आ...
आ फ़िर से मुझे छोड़ के जाने के लिये आ
और फिर इतिहास के पन्नों को पलटते हुए उठकर चल दिये -
"अहमद फ़राज की इस गज़ल में ये दो अशआर तालिब बागपती ने जोड़े हैं जिन्हें मेहंदी हसन साहब अपनी गज़ल में गाते हैं"
माना कि मुहब्बत का छिपाना है मुहब्बत
चुपके से किसी रोज जताने के लिये आ
जैसे तुझे आते हैं ना आने के बहाने
ऐसे ही किसी रोज़ ना जाने के लिये आ
उनका उठकर जाना हमें इस तरह खला -
आप उठकर गये तो लगा अंधा हो गया हूँ
अंधेरे में बैठा हूँ गुमान ही न था !!!
मनिषजी थके-थके से फिर आए और "कतील शिफाई" के शब्दों में शायद अपने महबूब से कहने लगे -
थक गया मैं याद करते करते तुझको
अब तुझे मैं याद आना चाहता हूँ । आखिरी हिचकी तेरे जानों पे आए
मौत भी मैं शायराना चाहता हूँ अपने होठों पर सजाना चाहता हूँ
आ तुझे मैं गुनगुनाना चाहता हूँ
हम भी पुनः शिकायती तेवरों के साथ हाज़िर हुए -
हमने गुजार दी ताउम्र जिनकों समझने में
वो कहते है नहीं कोई सुलझा हुआ हमसा ॰॰॰
तो नाहर भाई "निदा फ़ाजली" के शब्दों में जीवन मुल्यों की हक़िकत से अवगत करवाने लगे -
सब की पूजा एक सी, अलग अलग हर रीत
मस्जिद जाये मौलवी, कोयल गाये गीत
पूजा घर में मूर्ती, मीरां के संग श्याम
जितनी जिसकी चाकरी, उतने उसके दाम
सीता- रावण, राम का, करे विभाजन लोग
एक ही तन में देखिये तीनों का संजोग
मिट्टी से मिट्टी मिले, खो के सभी निशान
किस में कितना कौन है, कैसे हो पहचान
मनिषजी "साकी" को समझाने लगे की अभी उसके खेलने खाने के दिन है -
ना कह साकी बहार आने का दिन है
जिगर के दाग छिल जाने के दिन हैं
कहें क्या राज - ए - मोहब्बत तुमसे
तुम्हारे खेलने - खाने के दिन हैं
तो हम भी अपनों को वापस अपने शहर बुलाने लगे -
हो सके तो लौट आना फिर अपने शहर में
दो निगाहें आज भी अपलक है इंतजार में
मनिषजी पुनः लौटे "जावेद अख्तर" साहब के शब्दों में और बुलाने लगे किसी को मिलने के लिए -
मुझे गम है कि मैने ज़िन्दगी मे कुछ नहीं पाया
यह गम दिल से निकल जाये ,अगर तुम मिलने आ जाओ
यह दुनिया भर के झगड़े, घर के किस्से, काम की बातें
बला हर एक टल जाये, अगर तुम मिलने आ जाओ
और फिर अंत में रहा हमारा यह शेर -
अन्दर समेट लो तूफां ॰॰॰ कुछ नहीं होगा
दीया भी तब बुझेगा, जब फूंक मारोगे!!!
और एक बार फिर वही निवेदन करते हुए मैं चाहूँगा कि आप भी परिचर्चा में शिरकत कर महफ़िल को यादगार बनाऐं।

शुक्रवार, अक्तूबर 27

पाँच शेर - प्रथम भाग

दोस्तों मैं अब तक करीब १०० शेर लिख चुका हूँ और उम्मीद करता हूँ इनमें से अधिकतर आप सभी को पसंद आयेंगे।
हो सके तो लौट आना फिर अपने शहर में
दो निगाहें अपलक है आज भी इंतजार में
हमने गुजार दी ताउम्र जिनकों समझने में
वो कहते है नहीं कोई सुलझा हुआ हमसा ॰॰॰
आप उठकर गये तो लगा अंधा हो गया हूँ
अंधेरे में बैठा हूँ गुमान ही न था !!!
हम ही ना समझ पाए अब तक अपने यार को
ताली बजा के वो कहता है हम अच्छे नहीं शायर ॰॰॰
हम लगे थे गिनने अपनी-अपनी धड़कने ॰॰॰
गिनती चलती रही ॰॰॰ धड़कने बढ़ती रही ॰॰॰
जारी ॰॰॰

बुधवार, अक्तूबर 25

हाय रे "ब्लॉगस्पॉट", ये तुने क्या किया???

पहले एक "एड" कभी-कभार दिख जाता था "जोर का झटका धिरे से लगे" मगर अपने को तो आज झटका भी जोर से लगा। :(
बहुत पहले एक चिट्ठाकार मित्र ने सलाह दी थी कि "वर्डप्रेस" की ओर कूच कर लो मगर हम थे कि "ब्लॉगस्पॉट" का साथ नहीं छोड़े, हमें "ब्लॉगस्पॉट" पर पूरा भरोसा जो था। मगर आज ऐसे समय में "ब्लॉगस्पॉट" ने अपने हाथ खड़े कर दिए जब मैं अपने चिट्ठे का "भविष्यफल" (और वो भी पूरे एक साल के लिए) जानने को उसकी मदद ले रहा था।
हुआ यों कि गुरूदेव "हिन्दी चिट्ठों का वार्षिक भविष्यफल" बता रहे थे, और "पर्सनल समीक्षा" के लिए फीस थी ५१ टिप्पणियाँ और उनके विवरण सहित निजी ई-मेल।
"इसके सिवाय यदि कोई अपने ब्लाग की पर्सनल समीक्षा चाहता है तो वो पहले हमारे ब्लाग पर ५१ टिप्पणियां कर दें और उनका विवरण दे हमें अलग से ईमेल करें, हम उसको अलग से बतायेंगे."
हमें फीस अनुचित ना लगी सो "एडवांस पैमेंट" करने लगे, मगर जैसे ही हम टिप्पणी क्रमांक - ३१ पर पहूँचे "ब्लॉगस्पॉट" ने हाथ खड़े कर दिये -
"Comments have been disabled on this post."
मुझे ऐसा लगा जैसे "ब्लॉगस्पॉट" इस मैसेज द्वारा यह कह रहा हो -
क्यूँ बेटा देख लिया अपना "वार्षिक भविष्यफल" या कुछ और भी पेश करूँ ॰॰॰।
हाय रे "ब्लॉगस्पॉट", ये तुने क्या किया??? :(

शनिवार, अक्तूबर 21

दीपावली की ढ़ेरों शुभकामनाएँ!!!

जगमग दीप करते रोशन अंधकार का नाश करते रंग-रंगोली घर सब सजकर माँ तुम्हारा स्वागत करते चरण-कदम से पावन कर दो खुशियों से तुम झोली भर दो गरीबी का सर्वनाश कर दो धन-कुबेर की वर्षा कर दो जय माँ लक्ष्मी, जय गणेश मन शुभ-शीतल कीजिये द्वेश मुक्त रहे मन सदा कोई वर ऐसा दीजिये माँ लक्ष्मी और प्रभू श्री गणेश के चरणों में "कविराज" का शत्-शत् नमन!!! आप सबको दीपावली की ढ़ेरों शुभकामनाएँ!!!

गुरुवार, अक्तूबर 19

"हेलो फोटो टेस्टिग"

नमस्कार!!!
मैं गिरिराज जोशी, शत् शत् नमन पर संवाददाता "कविराज" के साथ ब्लॉगस्पॉट डोट कॉम से चिट्ठा जगत के लिए प्रसारित होने वाले ताजा समाचार लिए उपस्थित हूँ। सबसे पहले सुनिये आज के ताजा समाचार॰॰॰
अरे क्या हुआ भाई काहे कह रहे हो कि हम पगलागये हैं, अरे तनिक बताईये तो हमका, ऐसा कौनौ काम किया हूँ???
मैं भी यही कह रहा हूँ भाई, प्रभू नारद का अतिरिक्त कार्यभार संभालते-संभालते "चिट्ठाचर्चा" को यह कैसा रोग लग गया? हम सुबह तक तो बिलकुल ठीक थे मगर जैसे ही चिट्ठाचर्चा डोट ब्लॉगस्पॉट डोट कॉम देखा जूकाम हो गया। अनुप भाई समाचार सुना रहे थे और वो भी तब जब चालिसियाये हैं, खैर जैब से रूमाल निकाल कर नाक पर मारा और आगे पढ़ने लगे॰॰॰
आगे समाचार था "कविराज की सांसे फूलनें लगी", हम कुछ समझे नहीं कि क्या करें? उम्र से तो चालिसियाये हैं मगर लगता है "सठिया" गये हैं। हमने तुरन्त "भगवान" से निवेदन किया कि उनकी तबियत तरो-ताजा रखें और भागे सिधे प्रभू श्री नारदजी के पास, मगर यह क्या जीतु भाई दरवाजे की ओर मुँह ताके खड़े थे?
हमने हिम्मत जुटा कर धिरे से पुछा - "जीतु भाई क्या कर रहे हो???" जीतु भाई हमेशा कि तरह प्रेम से बोले - "फोटो टेस्टिंग" कर रहा हूँ। हमने उनकी व्यस्तता में खलल डालना अनुचित समझा और चल दिये सिधे प्रभू के पास। दर्शननिर्वत होकर जैसे ही बाहर लौटे तो देखा जीतु भाई "आऊट", संजय भाई "इन"। अब अपने संजय भाई के साथ थोड़ी अच्छी पटती है तो सिधे ही पूछ लिया - "बाहर क्या कर रहे हो, अन्दर जाकर प्रभू दर्शन काहे नहीं करते???" संजय भाई बोले - "दिखता नहीं का फोटो टेस्टिंग कर रहा हूँ" अरे बाप रे संजय भाई तो गुस्सा हो गये!!! हम पुनः प्यार से बोले - "वो तो जीतु भाई कब के कर लिए, आप क्यों खालीपीली अपना टाईम खोटी कर रहे हो?" संजय भाई ने एक बार की हमें घूर कर देखा फिर शायद यह सोचकर कि "यह अनाड़ी सचमुच नहीं जानता", हमें प्यार से समझाने लगे कि भईया अब प्रभू समाचार के साथ-साथ फोटो भी दिखायेंगे ताकि पता चल सके कि "ई मुंछवाला लिखा है", "ई चूटियावाली" और "ई ड्रेगनवा का चिट्ठा है" अब सोच लेईयो किस पर क्या टिप्पणी करनी है??? हमने प्रभू को मन ही मन प्रणाम किया और चलते बनें। अब आप भी "फोटो टेस्टिंग" करना चाहते हैं तो लेख पढ़िये और कीजिये - "हेलो फोटो टेस्टिग"

बुधवार, अक्तूबर 18

लेने दो श्वांस फुरसतिया भाई...

फुरसतियाजी खुद तो फुरसत से बैठे होंगे मगर हमें श्चांस भी ठीक से नहीं लेने देते, इस बारे में मैं हाइकु के जरिये पहले भी शिकायत कर चुका हूँ -
लेने दो श्वांस
फुरसतिया भाई
फुरसत से
मगर उनके कानो पर तो जैसे जूँ भी नहीं रेंगती, हम एक पोस्ट कर जैसे ही थोड़ा सुस्ताने लगे धड़ाम से डाकिये की माफिक आ गये अपनी नई पोस्ट लेकर दरवाजे पर और डाल दिये "निंद में व्यवधान"। हम आँख मलते हुए जैसे ही उनके सामने पंहुचे तो वो मुस्कुराते हुए बोले "क्यों बच्चूवा, अभी दूध के दांत भी नहीं निकले और सीधा हमसे पंगा, अब देख तौनो कैसा नाच नचाता हूँ।" हमारी हालत तो ऐसी हो गई जैसे बरसो से सोये ही नहीं। वो अपनी डाक पकड़ाकर चलते बने और देर तक आँखे फाड़े देखते रहे ॰॰॰
जब उनकी डाक पढ़ी तो हमे हमारी दूसरी गलती का भी एहसास हुआ। पहली गलती तो हम अपना नाम छापने की अनुमति न देकर कर ही चूके थे और फिर दूसरी गलती की उस गलती को मानते हुए सर्वकालिक अनुमति देकर। अब हम तो "ना घर के रहे ना घाट के", एक टिप्पणी के चक्कर में ऐसे पिटे कि पचास जीवों की हत्या का पाप ढ़ोना पड़ रहा है यकिं नहीं होता तो यह देखिए ॰॰॰
खैर हम टिप्पणी के माध्यम से वहाँ अपना संदेश छोड़ आए ताकि कुछ शान तो बची रहे। अब हम आराम से सोने की चेष्ठा कर ही रहे थे की प्रमेन्द्रजी आ धमके फुरसतियाजी की वही पोस्ट लेकर। उन्हें समझाया कि हम यह पोस्ट देख चुके हैं, निचे देखिए हमारी टिप्पणी भी है और मंद-मंद मुस्कुरा दिये।
मगर हमें तो सांप सूंघ गया जब प्रमेन्द्रजी ने हमे बताया की -
"मेरे यहां टिप्‍पणी नही दिख रही है,
लिखा है ''अब तक कोई टिप्पणी नहीं की गई है.''
पहली टिप्पणी आप करें"
अरे यह कैसा चमत्कार हुआ प्रभू!!! हमें टिप्पणी दिख रही है और प्रमेन्द्रजी को नहीं। ऐसे तो हमारी शान बचाये रखना तो फुरसतिया के हाथ में रहा यानि मुल्जिम खुद अपने लिए सजा तय करेगा। हम यह कैसे सहन करते, अरे भाई अपना चिट्ठा भी तो है, टिप्पणी ना दिखे तो क्या???
मगर एक आलसी के लिए एक दिन में दो-दो पोस्ट करना बड़ा कठिन कार्य है, फुरसतियाजी कृपया ऐसा जुल्म आगे से ना ढ़ाया करें अपने अनुजो पर और हाँ मजाक-मजाक में कुछ अपमानजनक शब्दो का प्रयोग भी कर गया हूँ तो बुरा ना मानियेगा। अब में क्षमा-वमा नहीं मांगने वाला, क्या कहा - "क्यूँ???"। वो तो आप गुगल गपशप पर इतिहास के पन्नों में ढ़ुंढियेगा ॰॰॰
और हाँ, इस हाइकु को गम्भीरता से लिजियेगा -
लेने दो श्वांस
फुरसतिया भाई
फुरसत से
:) :) :)

फुरसतियाजी क्षमा करें।

फुरसतियाजी क्षमा करें।
आपने "टेलिपेथी" के जरिये जब मुझसे सम्पर्क कर इस पोस्ट के साथ मेरा नाम भी छापने की अनुमति चाही थी तब यदि मैंने आपको अनुमति दे दी होती तो शायद इतना बड़ा विवाद ना खड़ा होता, खैर होनी को कौन टाल सकता है। मैने अनुमति सिर्फ यही सोच कर नहीं दी कि कहीं बाकि रचनाकारों का हृदय आहत ना हो मगर इससे इस प्रकार का विवाद भी खड़ा हो सकता है मुझे उम्मीद ना थी, मुझे क्षमा करें और आगे से बेहिचक मेरा नाम छापे ताकि ब्लॉग जगत में विवादो को कम से कम किया जा सके।
आज मेरी इस छोटी सी गलती की वजह से पूरा ब्लॉग जगत "वहम" नामक लाइलाज बिमारी का शिकार हो चुका है जिसके लिए मैं बहुत शर्मिन्दा हूँ। मुझसे यह भूल अनजाने में हुई है, मुझे मालूम ही नहीं था कि ब्लॉग जगत इतनी आसानी से "वहम" का शिकार हो सकते है।
अब तो बात और भी घातक हो चुकी है, जाँच में यह सामने आया है कि इस रोग के खिलाफ सभी ब्लॉगरों में रोगप्रतिरोधक क्षमता का अत्यधिक अभाव है। यदि समय रहते समुचित इलाज नहीं किया गया तो इसे रोकना नामुमकिन हो जाएगा, इसलिए आपसे निवेदन है कि आप समस्त ब्लॉग जगत को व्यक्तिगत खत के माध्यम से अवगत करवाएँ कि आपने हमारी तारिफ़ में कसीदे कढ़े थे सो बाकि ब्लॉगर "वहम" के शिकार ना हो।
हमे तो तब और भी ज्यादा आश्चर्य हुआ जब हमने देखा कि गुरूदेव भी यहाँ शिकार हो चुके हैं और उन्हें यह बिमारी आपने ही सप्रेम भेंट की है। हर कोई अपनी-अपनी कला में उस्ताद है फिर भी यदि प्रतिस्पर्धा हो तो स्वस्थ होनी चाहिए मगर आप तो इस बिमारी का उपयोग अपने प्रतिद्वंदी को "जार्ज बुश" की तरह समूल हटाने की नियत कर रहें है जो सर्वथा अनुचित है।
मैं समझ सकता हूँ कि गुरूदेव जिन आठ लोगों की बात कर रहें है वो कौन है? आप तो सचमुच खिलाड़ी निकले। अब तो मैं आपको दोष भी नहीं दे सकता क्योंकि अनुमति नहीं देकर मैं भी आप से बड़ा दोषी हुआ। मैं अपनी गलती स्वीकार कर सम्पूर्ण ब्लॉगजगत से क्षमा मांगता हूँ और मुझे खुशी होगी अगर आप भी सम्पूर्ण ब्लॉगजगत को इस भयावह बिमारी से मुक्त कराने में कुछ सहयोग करें।
उम्मीद है आप भी हर संभव प्रयास कर सम्पूर्ण ब्लॉग जगत को इस बिमारी से मुक्त कराने में हमारी मदद करेंगे।
सहयोग की आशा के साथ।

मंगलवार, अक्तूबर 17

मेरे बिखरे शब्दों की समीक्षा - ३

"मेरे बिखरे शब्दों की समीक्षा" में मैं इस बार लेकर आया हूँ हिन्दी-कविता "कम्यूनिटी" (ऑरकुट) में शुभाषिश पांडे के फ़ोरम "क्रांति चाहिये देश को" पर मित्र शुभाषिश पांडे (इस रंग में) और मेरे (इस रंग में) बिच आरक्षण को लेकर हुई काव्यमय बहस -
उबल रहा अब रक्त रगो में
फिर इतिहास बनाने को
कलम छोड़ बंदूक उठा लो
इंकलाब लिख जाने को
देश बांटने वालों तुमको
खून से हम नहला देंगे
इस आरक्षण के नाम को ही
हम स्वीधान से मिटा देंगे अगर सामने आये तो
फिर तुम अर्जुन हो या मनमोहन
इस बार हमें जो रोका तो
जिंदा तुम्हे जला देंगे
उबल रहा जो रक्त रगो में ज़रा उसको समझाओ खून खराबे से नहीं तुम कोई नया इतिहास बनाओ कलम की ताकत पहचानो मत छोड़ इसे बंदूक उठाओ देश बांटने वालो को तुम इसकी ताकत तो दिखलाओ
इस आरक्षण के नाम को है हमको स्वीधान से मिटाना पर विदित रहे इसके लिए नहीं और हथियार उठाना
"गांधीजी" की अहिंसा को ज़रा फिर से याद करो मत बात-बात पर फिर से तुम "भगतसिंह" बनो आरक्षण को हमें मूल से मिटाना है देश को भी अपने बंटने से बचाना है इसके लिए जरूरी है सबको साथ मिलाना कलम ही कर सकती ऐसा इसको मत गिराना
कलम फिर से उठाना बंधु कलम फिर से उठाना ॰॰॰ "गांधीजी" की तरह तुम भी देश को मत बरबाद करो कुछ करना ही है अगर तुम्हे तो भगतसिंह को याद करो
कब तक हाथ जोड़ के यूँही मांगोगे अपने अधिकार को जब खत्म हो जाएगा सबकुछ तब ढ़ुंढ़ोगे किस आधार को
दुश्मन की बंदूक के आगे सीना बेवकूफ है तानते अरे लातों के भूत भला कभी बातों से है मानते
धैर्य वहीं तक अच्छा है जो लक्ष्य में सदा सहायक हो उसके साथ वैसा ही शुलूक करो जो जिस बात के लायक हो
स्वयं राम भगवान को तब मिली राह समुन्द्र से सूखने के डर से जब कांप उठा खुद अन्दर से "राष्ट्रपिता" के बारे में ख्यालात आपके सही नहीं है "भगतसिंह" भी कहते थे उनका कोई सानी नहीं है
पूजा करते थे वो बापू की याद तुम्हे दिलाता हूँ आज उन महान शहीदों की फिर से पहचान कराता हूँ
स्वाभिमानी राष्ट्रभक्त वो स्वतंत्रता उनका लक्ष्य था हर कोई अपने-अपने सिर पर कफ़न पहनकर चलता था
हथियारों से खेलते होली ऐसा युवाओं में माद्दा था पर याद रखो उस वक्त हमें फिरंगियों से लड़ना था
अब बात नहीं है वैसी ना ही खतरा किन्ही औरों से हमें बचाना है देश को अब अपने ही विभीषणों से
भाई गर अपना हो जाए बागी, कैसे उसको काट दें आवेश में आकर बोलो कैसे लहू उसका बहा दें
मिलजुल कर रहना हमको संगठित फिर से होना है भाई-भाई हैं हम सब यह बात सबको समझाना है
इसीलिए कहता हूँ बंधु मत आवेश में आओ फिर से कलम उठाओ और नया संविधान बनाओ
फिर से कलम उठाओ बंधु फिर से कलम उठाओ "राष्ट्रपिता" कहते सब उसको सत्य ही उसका नारा है पर एक सच तो यह भी है कि वो "भगतसिंह" का हत्यारा है
एक बार वो कह देते तो फांसी ना होती क्रांतिवीर की पर खुद को सही दिखाने को बली चढ़ा दी उस शूरवीर की
यह "गांधी" ने कब मेरे देश को अंग्रेजो से छुड़ाया है बस उनकी वजह से आजादी को हमने २५ वर्ष देर से पाया है
आज फिर वही वक्त खड़ा है समझो इस गंभीर बात को गलत हमेशा गलत ही होता गलती का मत साथ दो
हम तुमसे ज्यादा बड़ा हमारे लिये यह देश है इन नेताओ में सिवा भ्रष्टाचार के अब बोलो क्या शेष है
अब भी अगर तुम अपने-पराये में यूँ उलझ के रह जाओगे सच कहते है मित्र तुम्हे हम तुम भी बहुत पछताओगे
बस इसीलिए कहते है उठालो धनुष पर बाण चढ़ाके समझा दो इन देश शत्रु को कहीं और बसें अब जाके भ्रमित होकर प्रिय बंधु मत बापू को बदनाम करो भगतसिंह का हत्यारा कहकर मत उनका अपमान करो
फिरंगियों की साजिश थी वो बापू ना कोई हाथ था एक दिन पहले दे दी फांसी वरना जाग उठा इंकलाब था
मानता हूँ मैं की वो कह देते तो फांसी उनकी रूक जाती पर झोली ही फैलानी थी तो भीख में आजादी मिल जाती
हाँ वहीं फिर वक्त खड़ा है पर नहीं इस बार फिरंगी अपने देश को खा रहे बंधु अब तो अपने साथी-संगी
यह भी सच है हम तुम से यह "हिन्दोस्तां" बड़ा है नेताओं की रग-रग में राष्ट्र-द्रोह भरा पड़ा है
पर काट के उनको सड़को पे तुम कैसे भ्रष्टाचार मिटाओगे सच कहता हूँ करके ऐसा तुम सिर्फ आंतक ही फैलाओगे
हमे नहीं मिटाना बंधु किसी भी भ्रष्टाचारी को बस मिटाना है तो सिर्फ भ्रष्टाचार की बिमारी को
हर एक हिन्दुस्तानी को संगठित हमको करना है नेताओं के वोट बैंक को शिक्षित पहले करना है
शिक्षा का दीपक जब हर इक घर में जगमगाएगा देश हमारा फिर से "सोने की चिडिया" बन जाएगा
इसीलिए कहता हूँ बंधु शिक्षा का दीपक जलाओ मत हथियार उठाओ बंधु मत हथियार उठाओ
फिर से कलम उठाओ बंधु फिर से कलम उठाओ

सोमवार, अक्तूबर 16

मेरे बिखरे शब्दों की समीक्षा - २

परिचर्चा के थ्रेड "काव्यांताक्षरी - १" में हिस्सा लेना एक सुखद अनुभव रहा। पहली कविता के अंतिम अक्षर से अगली कविता और फिर उसके अंतिम अक्षर से एक और नई कविता। बिलकुल रेलगाड़ी के डिब्बों की तरह आपस में जुड़ी कविताओं में विभिन्न विचारधाराओं का अदभुद संगम हुआ। इस पोस्ट अपने उन्ही अनुभवों को आपके साथ बांट रहा हूँ -
जब हम "काव्यांताक्षरी - १" में पहुँचे तो रचनाजी अपनी ये पंक्तियाँ लिये बैठी थी -
थी शक्ति कलम मे तब अपार
न था शब्दोँ का तब व्यापार
पढकर ह्रदय प्रफुल्लित होता
या फिर आँखेँ नम होती थी
तब लेखनी मे था जादू
तब कविता, कविता होती थी !!
हमने भी रचना जी की हाँ में हाँ मिलाते हुए उनकी पंक्तियों को कुछ विस्तृत करने का प्रयास किया और इसके लिए क्षमा याचना भी -
थी तब शब्दों में स्वर्ण झंनकार
ना लगता तब "कलम-बाजार"
मुक्त आलिंगन शब्द-आत्म भरते
ना था तब शब्द-वेश्य-बाजार
थी प्रहरी बनकर रक्षा करती
ना करती कलम यों हृदयाघात
पढकर हृदय प्रफुल्लित होता
या फिर आँखेँ नम होती थी
तब सचमुच लेखनी मे था जादू
तब कविता, कविता होती थी !!
रचना दीदी ने भी हमे क्षमा किया और फिर "थ" पर छोड़ने के लिए शिकायत भी -
कोई बात नही गिरिराज जी जो आपने मेरी पँक्तियोँ का उपयोग किया...वैसे आपकी पन्क्तियाँ नीचे रखते तो 'थ' फिर से नही आता..खैर..
और काव्यांताक्षरी को आगे बढ़ाते हुए "बच्चन साहब" की ये पंक्तियाँ गुनगुना गई -
"था एक समय, थी मधुशाला,
था मिट्टी का घट, था प्याला,
थी, किन्तु, नहीँ साकीबाला, था बैठा ठाला विक्रेता
दे बन्द कपाटोँ पर ताला.
मै मधुशाला की मधुबाला!"
मेरे कवि मित्र श्री विश्व दीपक "तन्हाजी" ने इतनी हृदयता से "वसन्त" का स्वागत किया कि मैं अपने आप को रोक ना सका और काव्यांताक्षरी को आगे बढ़ाते हुए कुछ पंक्तियां मित्र श्री विश्व दीपक "तन्हाजी" को समर्पित की -
लिए मधुर मुस्कान मुख पे
सुन्दरता का प्रमाण लिए।
एक कलम को देखा मैने
ना कभी कोई श्रृंगार किए।
हर चमन को करती रोशन
सुमन, अनंत पवन लिए।
आओ मित्रों आज हम मिलके
स्वागत, कुंकुम, तिलक करें।
ऐसी स्वच्छ, सुन्दर कलम के
चरणों में अपना शीश धरें।
रत्ना जी रजनीगंधा के महकने पर शिकायती तेवरों में यह पंक्तियाँ लेकर हाजिर हुई -
रजनी गंधा चमन में महकी
सोई यादें ज़हन में चहकीं
उनका वो गुलदस्ता लाना
वेणी में एक फूल सजाना
नयनों का बरबस शर्माना
दांतों से अधरों को दबाना
मूक ज़ुबां से हाल सुनाना
इक दूजे पर जान लुटाना
हाय गया वो कहां ज़माना
क्यों हम भूले प्यार जताना
दिल में फिर चिंगारी दहकी
रजनी गंधा क्यों तुम महकी
रत्ना जी की इन पंक्तियों ने हमें भी विचलित कर दिया और हम भी एक साथ कईं सवाल लेकर हाज़िर हुए उनके समक्ष -
कब का था वो सोया पड़ा
क्यों उसको यूँ जगा दिया?
कहकर "भूले प्यार जताना"
क्यों दुखती रग को दबा दिया?
वो गुलदस्ता लाते,
जान लुटाते,
वेणी में फिर फूल सजाते
वो नयन शर्माते,
मूक ज़ुबां से हाल सुनाते
ये सब यादें,जीवन,वसन्त
क्यों इनको फिर याद किया?
दिल में जो फिर चिंगारी दहकी
क्यों शोला उसको बना दिया?
कहो "रत्नाजी" गर वो महकी
क्यों "रजनी गंधा" को दोष दिया?
रत्ना जी भी ज्यादा देर चुप रहने वाले नहीं थे तुरन्त बदलते प्रेम की नई परिभाषा को समय का सितम कहते हुए यूँ हाज़िर हुई -
यह तो सितम समय ने ढाया
वेणी को दुर्लभ चीज़ बनाया
प्रियतम कहाँ पर फूल सजाए
प्रेयसी लजा कर कैसे रिझाए
अब न चले नयनों की भाषा
बदली प्रेम की है परिभाषा
सरपट दौड़े प्यार का धंधा
Sms करता हर कोई बंदा
अब क्यों महके रजनी गंधा
रत्ना जी के शब्दों में हमें सच्चाई दिखी सो तुरन्त उनके साथ हो लिये -
धारण शब्द तीरों को करके
क्या खूब है हथियार उठाया
बदलते वैश्विक मुल्यों में सचमुच
प्रेम रहता अब खोया-खोया
बदल गई है नैनो की भाषा
सचमुच बदली प्रेम परिभाषा
अब कौन करें "प्रिय" का इंतजार
सचमुच खो गया है प्यार ॰॰॰
इसी क्रम में रचनाजी, मनिषजी, रत्नाजी काव्यांताक्षरी को आगे बढ़ाते हुए पुनः "थ" पर ले आए तो हमें भी अनायास ही अपनी दो वर्ष पुरानी पंक्तियाँ याद आ गई -
थाम कर हाथ
चलेंगें साथ
वो सफ़र वादो का
जो
शुरू किया था कभी
तुमने
बिना सोचे समझे
अभी
बहुत तय करना
बाकी है
और तुम पुछते हो
कहाँ व्यस्त रहते हो?
रत्ना जी ने बिना देर किये अपने अनुभवों से हमें आग़ाह किया -
हाथों से जो फिसल गया
वो लम्हा कहीं खो जाता है
वक्त के सागर में जो डूबा
कभी उभर न पाता है
वादे तो बस वादे है
उन पर कैसे करें यकीन
सब कुछ भूलकर नाचे इंसान
समय की जब बजती है बीन।।
मगर जोश से लबालब भरा मेरा मन रत्ना जी की अनुभवों को मानने को तैयार नहीं था, सो असहमति प्रकट की -
नहीं रतना जी
मैं इससे सहमत नहीं
आपने शायद उसे
ठीक से थामा नहीं
वरनावो लम्हा यों
फिसलकर कहीं खोता नहीं
वक्त का सागर हो
या फिर वादों का अम्बर
डरकर भागना
अपनी तो फितरत नहीं
यकीं है खुद पर
शायद तभी समय की बीन
हमको तो नचाती नहीं!!!
तो रत्ना जी ने भी हमारा सीना वक्त के सामने यूँही तना रहे, इसके लिए कामना की -
हम आज करते यही कामना
यकीन आपका बना रहे
वक्त के आगे तना जो सीना
वो बस हर दम तना रहे
हमने भी रत्ना जी की शुभकामनाओं को स्वीकार करते हुए उनको धन्यवाद दिया -
हे मित्र!
हम धन्य हुए
पाकर तेरा साथ
सीना और भी तन गया है
दुआओं का हाथ
यकीन यूँही बना रहेगा
सीना यूँही तना रहेगा
अब वक्त के आगे
सच कहूँ तो
खेल-तमाशा लगता है
मित्र आपकी दूआओं से
होंसला बढ़ता लगता है
तभी रचनाजी अचानक झकझोर देने वाले प्रश्नों के साथ पुनः अवतरित हुई -
हरदम जग से कुछ माँगा ही, कभी सोचा है, क्या दे पाए?
अपना हक तो हरदम छीना, कर्तव्य कभी निभा पाए?
कितनो को रोते देखा है, क्या उन्हे कभी हँसा पाए?
मानव का जन्म लिया तुमने, मानवता कभी जता पाए?
रचनाजी के शब्दों की महता को समझते हुए हमने जवाब कुछ यूँ दिया -
रचना जी आपकी पंक्तियाँ काबिले-गौर है, मैं पूरी ईमानदारी से इनका पालन करने की चेष्ठा करूंगा। मैने आपकी पंक्तियों पर भारतीय नेताओं की सोच को व्यंगात्मक रूप में दर्शाने का छोटा सा प्रयत्न किया है, कहीं सुधार की आवश्यकता हो तो मार्गदर्शन की अपेक्षा रखता हूँ -
एक बात पते की लो हम भी आज बतलाते है
मानवता और मानव में जो भेद वो दिखलाते है
देने की ना बात करो क्या जग को अब देंगे हम
तृष्णा अपनी शान्त न होती खाएँ-पिंएँ उतना कम
छीना-छपटी करना जब है गुण आनुवांशिक अपना
तो कहो क्यूँ देखे फिर कर्तव्य निभाने का सपना
नहीं देखा हमने अब तक कहीं किसी को भी रोता
आँखे बंद ही करके निकले हो अजनबी चाहे नाता
मानव का जन्म लिया है पर नहीं मुझमें मानवता
अरे भाई पहचानों मुझको मैं हूँ भारतवर्ष का नेता
इसी तरह "काव्यांताक्षरी - १" आगे बढ़ती रही ॰॰॰
और अन्त में मैं चाहूँगा कि आप भी परिचर्चा में शिरकत कर महफ़िल को यादगार बनाऐं।

रविवार, अक्तूबर 15

जय हास्य, जय नेता!!! - २

आजकल जिधर देखो बस हास्य कवि पैदा हो रहे हैं अपने व्यंग्य बाण सारे बेचारे नेताओं पर छोड़ रहे हैं कुत्तों से भी बद्दतर देखो नेता हो गया गधा कहा तो गधा भी नाराज हो गया कैसे-कैसे जुल्म ढ़ाते है ये कवि जानवरों से बद्दतर क्या इंसान हो गया? नेताओं पर होते प्रहार देखकर व्यंग्य का चढ़ता बुखार देखकर मेरा मन है आहत हुआ मन मैं प्रश्नों का समावेश हुआ मिले मृत्यु-दंड हास्य कवि को बिल संसद में रख गये तो? या फिर कल को छोड़ राजनीती नेता सारे कवि बन गये तो? प्रश्नों का सिलसिला चलता रहा मैं भी पगडंडी पर बढ़ता रहा जो थोड़ा आगे बढ़े थे नेताजी तुला चढ़े वाह! लगता है नेताजी सिक्कों से तुल रहें है तभी मारे खुशी के इतना फ़ूल रहे हैं मगर यह क्या नेताजी अचानक कहाँ जा रहे हैं? तभी आवाज आई वो देखो कवि महोदय आ रहें हैं कवि का भय इस कदर घर कर गया है बेचारा नेता अब भारत में भी बैचेन हो गया है क्यूँ ना बढ़े उसके माथे पर सिलवटें कवि भी तो हाईटेक हो गया है हे भारतवर्ष के महान नेता मत कर जरा भी चिंता तेरी खोई इज्जत फिर से लोटाऊँगा तुझे फिर से बहतर इंसान बनाऊँगा मगर तुझे यह वादा करना होगा अपने पाप-कर्मों को धोना होगा अपना जीवन कर समर्पित "मेरा भारत महान" बनाना होगा फिर देखना ये हास्य कवि खुद हास्य मूरत बन जायेंगे पर राष्ट्र उद्धारक नेता तुझको हमेशा सर आँखो पे बिठायेंगे निवेदन : यह मेरा प्रथम-प्रयास है सो उचित टिप्पणी कर मार्गदर्शन करें।

शनिवार, अक्तूबर 14

जय हास्य, जय नेता!!!

वैसे हास्य-रस में अपना हाथ थोड़ा तंग है मगर आहत होकर अभी हास्य-रस की अपनी पहली कविता लिख रहा हूँ ॰॰॰ अरे! इसमें आश्चर्य की कौनसी बात है, मैं अमुमन कविताएँ आहत होकर ही लिखता हूँ। अब आप कहेंगे कि मैने प्रेम-रस में भी हाथ मारे हैं तो भईये कोई प्रेम से भी तो आहत हो सकता है, नहीं क्या???
हाँ यह प्रश्न थोड़ा उचित लगा कि आहत हैं तो हास्य क्यों?
अरे भाई आहत भी तो हास्य से हैं तो "गांधीगिरी" नहीं लगायेंगे क्या???
देखिये ना आए दिन हास्य कवि-सम्मेलन होते रहते हैं और हास्य पैदा करने के लिए हर बार मोहरा बनता है बेचारा नेता। अब यह तो नेता लोगों कि सराफ़त हैं कि वो झेल रहें है वरना कभी का विधेयक पारित कर फांसी दिला दिये होते सभी हास्य कवियों को और मुझे दिला दिये होते भारत रत्न!!! , खैर अपनी तो किस्मत ही खोटी है।
हमने इस विषय को गंम्भीरता से लेते हुए भविष्य में देखने की चेष्ठा की है, खानदानी पंडित जो ठहरा! पहले सोचा कि अपने चिर-परिचित अंदाज मैं ही यूँ लिखुँ -
हाय रे नेता
तेरी फूटी किस्मत
दर्द तेरा
अब कौन समझें
बना कठपुतली
तुझे चाहे नचाना
क्या मालुम???
इन हास्य कवियों को
जोड़-तोड़ की
यह सत्ता अनोखी
तु होकर मानव
कैसे चलाये ॰॰॰
मगर फिर यकायक ठान लिया कि जब हास्य से आहत हैं तो हास्य ही लिखेंगे, अरे जब कुण्डलियों हाथ डाल दिया तो हास्य कौनसा मुश्किल है, ठोक देंगे ताल वहाँ भी।
अभी मैं अपनी संभवतया पहली (संभवतया इसलिए कि क्या पता पहले कहीं दो-चार लाईन ठोक दी हो, आजकल याद कम ही रहता है) हास्य कविता लिख रहा हूँ, मुनादि पहले पीट रहा हूँ ताकि कल को यह सुनने को ना मिले - "कविराज पगला गये हैं आजकल जाने क्या-क्या लिखने लगे हैं"
किसी को हास्य-कवियों पर हास्य-रस में हास्य-वार से एतराज हो तो कल हमारे चिट्ठे पर ना आईयेगा।
जय हास्य, जय नेता!!!

शुक्रवार, अक्तूबर 13

दिवाली आने वाली है ॰॰॰

माँ ऐ माँ देख पिछली दिवाली पर काँट-छाँट कर मालिक की उतरन से जो तुमने पेन्ट सिलवाई थी अब घुटनें बाहर झांकने लगे है ॰॰॰ माँ तुम चिन्ता मत करो मैने दर्जी से बात कर ली है दो चड्डियाँ सिल देगा गुल्लु के लिए माँ मैने सुना है फिर से दिवाली आने वाली है ॰॰॰ ऐ माँ मालिक को बोल ना पिछली बार की तरह कोई उतरन ॰॰॰॰

गुरुवार, अक्तूबर 12

गुरू-चेला संवाद

गुरूदेव :-
गिरिराज जी,
व्यक्तिगत ईमेल कर रहा हूँ:
यगण मगण तगण रगण जगण भवण नगण सगण
हो आठ गण यति गति ज्ञान, तब कहलाए चरण
तब कहलाए चरण, तुकान्त रोला मात्रा हो
चरण भाव-युक्त व मात्रा पूरी चौबीस हो
बुरा फंसा "कविराज" नचायेंगे तुझको गण
कुण्डलिया बाद में सिखना पहले मगण-यगण
दोहा देखें:
पहले परिभाषा: इस छ्न्द के पहले-तीसरे चरण में १३ मात्रायें और दूसरे-चौथे चरण में ११ मात्रायें होती हैं. विषय(पहले तीसरे)चरणों का आरम्भ जगण नहीं होना चाहिये और सम (दूसरे-चौथे) चरणों का अन्त लघु होना चाहिये.
अब आपका दोहा:
यगण मगण तगण रगण जगण भवण नगण सगण
हो आठ गण यति गति ज्ञान, तब कहलाए चरण
पहला चरण कहीं भी खतम करें, वो १३ मात्रायें नहीं देता. बल्कि १२ ही दे रहा है तो दूसरा चरण भी १२ मात्रायें ही देगा. तीसरा चरण जहां १४ मात्रायें दे रहा है, वहीं चौथा १०. हांलाकि मात्राओं कि कुल संख्या २४ हो जा रही है, मगर वो दोहे की परिभाषा में पूर्ण खरा नहीं उतरता. सिर्फ़ आपकी जानकारी के लिये बता रहा हूँ, कृप्या अन्यथा न लें. :)
आपके लिये यह लिखा है, यह कुण्डली देखें, मात्रा और नियमों के हिसाब से शुद्ध है: :)
सीख गणों की राखिये , ऐसन कहे विधान
मात्रा बस मिलती चलें, हो जायेगा काम
हो जायेगा काम फिर जो कुण्डली रचना
भाव पूरे आ गये, यह ध्यान में रखना
कहत समीर कि जानो ऐसी हमारी रीत
गुरुदक्षिणा दें कैश में जब जायेंगे सीख.
सादर,
समीर
चेला :-
आदरणीय गुरूदेव,
सादर प्रणाम!!! आपने व्यक्तिगत ईमेल कर जिस व्यक्तित्व का परिचय दिया है, उससे आपको गुरूदेव कहते हुए सीना फक्र से और चोड़ा हो गया है।जिस तरह हमारे बिच संवाद चिट्ठे पर चल रहा था उससे मुझे इस तरह के व्यक्तिगत ईमेल की कदापि आशा नहीं थी, शायद यही फर्क होता है परिपक्वता और अपरिपक्वता में। जहाँ मैं मात्र चंद घंटो में ही विचलित होकर आपको सार्वजनिक ई-मेल कर गया वहीं आपने सार्वजनिक रूप से अब तक मेरी पिठ थमथपाई और मेरी कमियों को दर्शाया व्यक्तिगत ईमेल के जरिये।
वैसे यदि आप ये मैल मेरे चिट्ठे पर टिप्पणी के रूप में या अपने चिट्ठे पर मेरी अगली क्लाश के रूप में लिखते तो भी मुझे तनिक भी बुरा नहीं लगता क्योंकी यह मेरे साथ-साथ अन्य चिट्ठाकारों को भी बहूत कुछ सिखा जाता और मैने भी इसी सोच से सार्वजनिक ई-मेल लिखा था। हालांकि आपके व्यक्तित्व को देखते हुए मुझे पूर्णविश्वास है कि आपने बुरा नहीं माना होगा फिर भी क्षमा याचना करता हूँ। क्षमा करें।
आपकी इस ज्ञानवर्धक क्लास के सम्मान में, मैं अपनी उसी कुण्डली कों पुनः सुधारकर आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ, कृपया पुनः अवलोकन कर उचित मार्गदर्शन करें -
यगण मगण तगण सिखिये, और सब आठों गण
आठों गण यति गति ज्ञान, तब कहलाता चरण
तब कहलाता चरण, तुकान्त रोला ज्ञान हो
चरण भाव-युक्त व मात्रा पूरी चौबीस हो
बुरा फंसा "कविराज" नचायेंगे तुझको गण
कुण्डलिया बाद में सिखना पहले मगण-यगण

और अन्त में धन्यवाद अर्पित करते हुए आपसे आपके व्यक्तिगत ईमेल को सार्वजनिक करने की इजाजत चाहूँगा, यकिं मानिये इसके पिछे मेरी यह कतई मंशा नहीं है कि मेरे चिट्ठे पर आवागमन बढ़े, बल्कि मैं चाहता हूँ यह गुरू ज्ञान सभी चिट्ठाकारों को नसीब हो। यदि यह मैल आप अपने चिट्ठे पर सार्वजनिक करें तो मुझे और भी ज्यादा खुशी होगी।

आप बस इसी तरह सिखाते रहें, हम हमेशा कुछ ना नया सिखने को लालायित रहते हैं।

प्रणाम!!!

- गिरिराज जोशी "कविराज"

गुरूदेव :-

प्रिय गिरिराज जी,

अरे, आप तो मेरे अनुज हो और मैने तो वही किया जो एक अनुज के साथ किया जाता है. मुझे कोई आपत्ति नहीं है.आप चाहो तो मेरे जवाब को, साथ मे बाद मे जो कुण्डली भेजी और अपना जवाब मिलाकर एक पूरी पोस्ट बनाकर पोस्ट कर लो.पूरा जवाब शायद सबके लिये आवश्यक न हो तो इसे जिस तरह कांट छांट कर एक पोस्ट का रुप देना चाहो, दे लो. शायद कुण्डली सीखने की इच्छा रखने वालों के काम आये और मनोरंजन तो बोनस में हो ही जायेगा. वैसे मै स्वयं कुण्डली का बहुत बड़ा ज्ञाता नहीं हूँ बस तुम्हारी तरह एक जिज्ञासु हूँ और हमेशा नियमों के तहत लिखता भी नहीं हूँ. इसीलिये उसे हमेशा कुण्डलिनुमा ही कहा है. भविष्य में भी अगर अपने अल्प ज्ञान से किसी तरह सहयोगी हो सकूँ तो यह मेरा सौभाग्य होगा.

शुभकामनाओं सहित,

समीर लाल

*************************

और अब अन्त में कुछ कुण्डलियाँ अवलोकनार्थ प्रस्तुत है जो मैने गुरूदेव और रवि रतलामी की टिप्पणियों के प्रतियुत्तर में इस पोस्ट पर रचनाजी की टिप्पणी से प्रभावित होकर लिखी हैं -

(1) कुण्डलियाँ बहुत नियमबद्ध पिछा छोडो इसका रतलामीजी कर गये, टिप्पणी ऐसी चस्पा टिप्पणी ऐसी चस्पा कि अपने नियम बनाओ गज़ल बन गई व्यंजल तुम भी कुछ दिखालाओ बनाओ नियम "कविराज", पार लगाओ नय्या नियम तोड़कर बना लो तुम अपनी कुण्डलियाँ

(2) नियम ग़ज़ल के तोड़कर बना दिया जो व्यंज़ल ग़ज़ल की दुनियाँ में तो मची होगी हलचल मची होगी हलचल कि ग़ज़लकार गुस्सा किये या बतलाओ तो जो वो संग व्यंज़ल हो लिये पुछत "कविराज" अब सुझाएँ क्या रखु मैं नाम तोड़कर जो लिख भी दें, अब नये-नये नियम

(3) "काका" की हैं "गुरूदेव", सचमुच कलम कमाल राह आप दिखाईये, हमको चलनी चाल हमको चलनी चाल के लिखुँगा तोड़-मरोड़ आप ज्ञान बरसाएँ लेखनी दूँगा मोड़ चिन्ता काहे की करें जब आप बनें आका रस्ता पहले ही दिखा दिए "फुलझडिया काका"

बुधवार, अक्तूबर 11

गुरूदेव प्रणाम!!!

गुरूदेव प्रणाम!!!

आपकी कुण्डलियों की सरलता देखकर मेरे मन जो भटकाव पैदा हुआ था वो कुण्डलियों की वास्तविक जटिलता से वाकिफ़ होने के बाद शान्त हो गया है, उम्मीद है भविष्य में यह मन कभी इस कदर नहीं भटकेगा। हमारे देश में मरने वाले की अंतिम इच्छा पूरी करने का रिवाज है सो मैने भी "मन" के मरने से पहले उसकी अंतिम इच्छा पूरी करते हुए कुछ प्रयत्न किया है।
हालांकि मैने कुण्डली नियमावली पढ़कर उसके प्रत्येक नियम को ध्यान में रखकर ही इसका निर्माण किया है परन्तु फिर भी आपसे निवेदन है कि जाँच लें और अपने बड़अपन को बरकरार रखते हुए गलतीयाँ हो तो क्षमा कर मार्गदर्शन करें।
यगण मगण तगण रगण जगण भवण नगण सगण
हो आठ गण यति गति ज्ञान, तब कहलाए चरण
तब कहलाए चरण, तुकान्त रोला मात्रा हो
चरण भाव-युक्त व मात्रा पूरी चौबीस हो
बुरा फंसा "कविराज" नचायेंगे तुझको गण
कुण्डलिया बाद में सिखना पहले मगण-यगण
हालांकि इस पोस्ट को आपके ज्ञानवर्धक पोस्ट पर टिप्पणी के रूप में दे दिया है, परन्तु चिट्ठे पर भी इस नेक उद्देश्य से पुनः लिख रहा हूँ कि भविष्य में इसका पुनरार्वतन न हो और मेरे चिट्ठे पर आने वाले आगन्तुक भी मेरे भावो को समझकर कुण्डलियों में हाथ-पैर मारने से पहले १० बार सोच लें। सचमुच बहुत कठीन है यह विधा।
आपको शत् शत् नमन। आपका शिष्य गिरिराज जोशी "कविराज"

मंगलवार, अक्तूबर 10

एक पाती, समीर भाई के नाम

आदरणीर समीरजी, सादर प्रणाम!

आपकी कुण्डलियाँ पढ़-पढ़कर हमारा मन व्याकुल हो उठा है कुण्डलियाँ लिखने को, मगर हम ठहरे इसमे बिलकुल अनाड़ी, क्या करें???
सोचा कविताएँ लिख लेता हूँ, हाइकु लिख लेता हूँ तो कुण्डलिया क्यों नहीं लिख सकता?
बस फिर क्या था आपकी सारी कुण्डलिया उठा-उठा कर खंगालने लगे, शायद कोई ओर-छोर पता लग पाये, हम कोशिश में लगे ही थे कि प्रतिक भाई "ऑनलाईन" दिखे तुरन्त सवाल ठोक दिया -
"कुण्डलियाँ कैसे लिखे?"
प्रतिक भाई बोले -
"ज्यादा नहीं पता मगर इतना बता सकता हूँ कि जिस अक्षर से शुरू करो खत्म भी उसी पर करो बाकि "डिटेल" में समीर भाई से जानों और हाँ कुण्डलियाँ लिखने में दिक्कत आए तो "काका" की तरह फुलझड़ियाँ लिखो, टेंशन काहे का!!!"
अब अगला नम्बर लगा अनुप भाई का। जैसे ही हमे "अनुप की डाक" "ऑनलाईन" दिखी, वही सवाल उनको भी आदर सहित प्रेषित कर दिया मगर यह क्या??? अनुप भाई तो सिधे ही कल्टी मार गये, बोले यह लो समीर भाई का "आई डी" वो बेहतर बतायेंगे। हमें तुरन्त आपको "गुगल चैट" पर गपशप के लिए "इनविटेशन" भेज दिया मगर आप हैं कि हमारे "इनविटेशन" को अभी तक "ऐसेप्ट" ही नहीं किए।
खैर हम भी हार मानने वाले कहाँ थे, वही सवाल जीतु जुगाड़ी जी (माफ करना चौधरीजी) को भी ठोक दिया मगर वो भी समीरलाल-समीरलाल की रट लगा बैठे। हमने बताया आप "ऑनलाईन" नहीं है तो जवाब मिला "मैल" ठोक दो, आईडिया अच्छा लगा मगर आज चिट्ठे पर लिखने को कुछ था नहीं तो सोचा क्यों ना "मैल" चिट्ठे पर ही ठोक दिया जाये। अब आप बुरा थोडे ही ना मानेंगे॰॰॰॰
अब बिना कुण्डली के आपको "मैल" भेजूँगा तो आप हमें ज्ञान थोड़े ही ना देंगे सो अन्त में एक कुण्डली ठोके जा रहा हूँ, अब कोई गलती भी है तो टैंशन काहे का, कुण्डली किंग को जो गुरू बनाने जा रहें है, धिरे-धिरे अपने आप सुधार हो जायेगा और तब तक सुधार करने की जिम्मेदारी आप संभालें।
और अन्त में आपके अवलोकनार्थ हमारी कुण्डली -
करने लगे आरक्षित अर्जुनसिंह कण-कण
ब्रह्म-पुत्र भी सड़कों पर, दो हमकों आरक्षण
दो हमकों आरक्षण वरना सिंहासन डोलेगा
गुर्जर कहते हम नहीं अब हथियार बोलेगा
कहे "कविराज" भारत में लगी प्रतिभा मरने
जातिगत समिकरणों पे लगे नेता राज करने
आदर सहित -
गिरिराज जोशी "कविराज"

शनिवार, अक्तूबर 7

मेरे बिखरे शब्दों की समीक्षा - १

कुछ समय पहले परिचर्चा पर रचना जी के थ्रेड "हमारा घर" पर घूमते-घामते पहूँचे और अपने अंदाज में घरौंदा बनाना शुरू कर दिया। अब आप ही देखें कैसा बना हैं हमारा घरौंदा -

जिस घर में बिताया था मैने अपना बचपन

वो आज चार हिस्सों में तबदील हो गया

कल तक था मैं जिनका लाडला-दुलारा

उनके लिए महज आज पड़ोसी हो गया

हमारे दिल के दर्द को समझते हुए रचनाजी ने कुछ यूँ दर्द बाँटा -

"गिरिराज जी, घर का बँट जाना दुखदायी होता है...आपके लिए "बच्चन जी" की ये पँक्तियाँ कहना चाहती हूँ,, जिसमे उन्होने चिडिया के घर (नीड) की बात की है...

"नीड का निर्माण फिर-फिर

नेह का आव्हान फिर-फिर

कृद्ध नभ के वज्रदँतोँ मे उषा है मुस्कुराती,

घोर गर्जनमय गगन के कँठ मे खग पँक्ति गाती

एक चिडिया चोँच मे तिनका लिए जो जा रही थी

वह सहज मे ही पवन उन्चास को नीचा दिखाती

नाश के दुख से कभी मिटता नही निर्माण का सुख

प्रलय की निस्तब्धता से सृष्टी का नवगान फिर-फिर

नीड का निर्माण फिर-फिरनेह का आव्हान फिर-फिर "

धन्यवाद रचनाजी!!!

किया है हमने भी चंद नये घरों का निर्माण

जहाँ मिली जगह बस ईंटे चुन दी

मेरे एक मित्र "राजीव तनेजा" को दिल्ली में अपना बसा-बसाया आशियां छोड़कर जाना पड़ रहा है, दिल्ली सरकार और सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद वो कर भी क्या सकता है। दो पंक्तियां दिल्ली सरकार और सुप्रीम कोर्ट के इस क्रुर आदेश के विरोध में -

तुम लाख उजाड़ो आशियां हमारा

हमें तिनको से घर बनाना आता है

खुश ना हो यूँ छीन के दाना-पानी

हमें भुखे उदर भी मुस्कुराना आता है

मेरा मानना है कि घर बच्चो से ही बनता है, क्योंकि घर को घर बनाना है तो घर के प्रत्येक सदस्य को बच्चा बनना पड़ता है -

बच्चे सड़को पे भीख मांगते हैं

लोग दिवारों को घर कहते हैं

अब कहने को तो हम दिवारों को भी घर कह सकते है, मगर वो घर कुछ इस प्रकार होगा -

ताऊ-ताई, चाचा-चाची सब मिलजुल कर रहते थे

कौन खिलाएँ मुझको इस बात पे झगड़ा करते थे

झगड़ा तो करते अब भी, पर नहीं मुझे खिलाने को

एक भेजता, दूजा रोकता, दिवारें पार कर जाने को

अब तो बालकनी में जाने पर भी प्रतिबंध लगा चुके हैं

ताऊ-चाचा कभी-कभी बस खिड़की से दिख जाते हैं

पर शब्दों में ना फेर हुआ, अब भी वहीं रहते हैं

पहले भी घर कहते थे, अब भी घर ही कहते हैं ॰॰॰

सागर चन्द नाहर जी को लगता है शायद घर और मकां में कुछ फर्क है, तभी वो मुझसे अंतिम पंक्तियाँ सुधारकर पुनः यों लिखने को कहते हैं -

शब्दों में भी फ़ेर हुआ है, अब भी वहीं रहते है

पहले घर जिसे कहते थे, उसे मकां अब कहते हैं।

मगर सागरजी फैर तो केवल शब्दों का है, बात तो शायद हम एक ही कहना चाह रहें हैं -

नहीं मिलता अब शुकुन जहाँ चैन दिल को

आप उसे मकां और हम उसे घर कहते हैं

या फिर मेरी अगली पंक्तियों पर गौर करें तो ऐसा भी हो सकता है -

कौन कहता है नहीं चैन दिल-ए-जिगर को

शायद नहीं समझा घर हमनें अपने घर को ॰॰॰

मगर हक़िकत तो यह है -

हम समझ पाते घर का मतलब

इससे पहले ही घरौंदा ढह गया

और अंत में विनयजी से शिकायत करना चाहूँगा कि उन्होनें अपने "मीन-मेख अभियान" में हमारे चिट्ठे को शामिल नहीं किया।

शुक्रवार, अक्तूबर 6

औरत ॰॰॰

इंसान ने
जब भी
ऊँचाईंयों को छूकर
निचे देखा
सहारा देकर
ऊपर चढ़ाते
किसी औरत के
हाथों को पाया ॰॰॰
इंसान ने
जब भी
खाई में गिरकर
ऊपर देखा
धक्का देकर
निचे गिराते
किसी औरत के ही
हाथों को पाया ॰॰॰

मेरा परिचय

  • नाम : गिरिराज जोशी
  • ठिकाना : नागौर, राजस्थान, India
  • एक खण्डहर जो अब साहित्यिक ईंटो से पूर्ननिर्मित हो रहा है...
मेरी प्रोफाईल

पूर्व संकलन

'कवि अकेला' समुह

'हिन्दी-कविता' समुह

धन्यवाद

यह चिट्ठा गिरिराज जोशी "कविराज" द्वारा तैयार किया गया है। ब्लोगर डोट कोम का धन्यवाद जिसकी सहायता से यह संभव हो पाया।
प्रसिद्धी सूचकांक :